________________
पर्युषणाप
सांवत्सरिक तेला, चातुर्मासिक बेला और पाक्षिक उपवास अवश्य करना चाहिए। असमर्थ, ग्लान और परिचारक इसके अपवाद हैं । तप को व्रतपुष्टिकारक कहा गया है।
०
पूर्ण निराहार अथवा योगवृद्धि
पुव्वाहारोसवणं, जोगविवड्डी य सत्तिउग्गहणं । दव्वट्ठवणाए आहारे चत्तारि मासे निराहारे अच्छतु, तरति तो एगदिवसूणो, एवं जति जोगहाणी भवति तो व दिदिणे आहारेतुं जोगवुड्डी – जो णमोक्कारेणं पारेंतओ सो पोरिसीए पारेतु, पोरिसिइत्तो पुरिमड्ढेण, पुरिमइत्तो एक्कासणएण । (दशानि ८१ चू)
वर्षावास में पूर्वाहार का परित्याग करे। अपनी शक्ति के अनुसार योगवृद्धि - प्रत्याख्यान में वृद्धि करे ।
द्रव्य स्थापना में आहारविषयक यह निर्देश है - वर्षावास में चार मास तक निराहार रहे। यदि न रह सके तो एक-एक दिन की न्यूनता करता जाए। यदि यह प्रतीत हो कि इससे अवश्यकरणीय योगों की हानि होती है तो आहार करता हुआ भी प्रतिदिन योगवृद्धि करे - नमस्कारसहिता करने वाला पौरुषी करे, पौरुषी करने वाला पुरिमड्ढ और पुरिमड्ड करने वाला एकाशन करे। • वर्षाकालीन तप से बलवृद्धि
वर्षाकालः स्निग्धतया स कालो बलिको तपः कुर्वतां बलोपष्टम्भं करोति । (व्यभा १३४० की वृ) वर्षाकाल स्निग्धता के कारण शक्तिप्रदायक होता है। जो तपस्या करते हैं, उनके लिए यह काल बल का आधारभूत होता है। ११. नित्यभोजी और तपस्वी : गोचरकाल
वासावासं पज्जोसवियस्स निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा, नण्णत्थ आयरियवेयावच्चेण वा उवज्झाय-वेयावच्चेण वा तवस्सि गिलाण - वेयावच्चेण वा खुड्डुएण वा अवंजणजायएणं ॥ (दशा ८ परि सू २३९) वर्षावास में स्थित नित्यभोजी भिक्षु के एक गोचरकाल होता है - वह आहार- पानी के लिए गृहपति के घर एक बार गमनप्रवेश कर सकता है।
Jain Education International
आगम विषय कोश-- २
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी और ग्लान के वैयावृत्त्य हेतु अथवा अव्यंजनजात बाल शैक्ष हेतु एक से अधिक गोचरकाल हो सकते हैं।
३५०
वासावासं पज्जोसवियस्स चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स... पाओ निक्खम्म कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तद्वेणं पज्जोसवित्तए, से य नो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं भत्ता ... | ॥छट्टभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति दो गोयरकाला ॥''''अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति ओ गोयरकाला ॥ विकट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्वे वि गोयरकाला .... ॥
एगं गोयरकालं सुत्तपोरिसिं कातुं अत्थपोरिसिं कातुं एक्कवारं ण चरिमं । (दशा ८ परि सू २४०-२४३ चू) वर्षावास के लिए स्थित चतुर्थभक्तिक (उपवास करने वाले) भिक्षु के लिए प्रातः काल का एक गोचरकाल ही विहित है । प्रात: कालगृहीत वह भोजन यदि पर्याप्त न हो तो वह दूसरी बार भी आहार के लिए गृहपतिकुल में जा सकता है।
षष्ठभक्तक (बेले की तपस्या करने वाले) भिक्षु के लिए दो गोचरकाल, अष्टमभक्तिक (तेले की तपस्या करने वाले) भिक्षु के लिए तीन गोचरकाल तथा विकृष्टभक्त करने वाले भिक्षु लिए सभी गोचरकाल विहित हैं।
एक गोचरकाल अर्थात् सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी सम्पन्न कर एक बार भिक्षाचर्या के लिए जाना, चरमपौरुषी में नहीं जाना । ....... सव्वे गोयरकाला, विगिट्ठ छट्टऽट्टमे बि-तिहिं ॥ संखुन्ना जेणंता, दुगाइ छट्ठादिणं तु तो कालो । भुत्तणुभुत्ते अ बलं, जायइ न य सीयलं होइ ॥ 'विकृष्टभक्तिकः 'दशम-द्वादशमादिक्षपकः ।
(बृभा १६९८, १६९९ वृ)
षष्ठभक्तिक, अष्टमभक्तिक आदि के दो या तीन तथा विकृष्ट तप - लगातार चार उपवास, पांच उपवास आदि तप करने वाले भिक्षु के सभी गोचरकाल विहित हैं। इसका कारण यह है कि बेले आदि की तपस्या से आंतें सिकुड़ जाती हैं, दो या इससे अधिक बार आहार करने से ही उसमें बेले या विकृष्ट तप का सामर्थ्य आता है। एक ही गोचरकाल में पूरा आहार
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org