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आगम विषय कोश - २
वन्दना के पांच अवश्यकरणीय काल हैं - १. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक तथा ५ सांवत्सरिक । इनसे संबंधित वंदनक निश्चित हैं, जिनको यथाविधि न करना प्रायश्चित्त का स्थान है।
* कृतिकर्म के पचीस भेद, वंदना के बत्तीस दोष आदि द्र श्रीआको १ वन्दना
क्षेत्रप्रतिलेखना – मुनि द्वारा मासकल्प और वर्षावास के योग्य क्षेत्र की गवेषणा ।
१. क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के योग्य-अयोग्य
२. क्षेत्रप्रतिलेखना : गण को आमन्त्रण ३. गण को आमन्त्रित नहीं करने के दोष
४. क्षेत्रप्रतिलेखक : दिशा और संख्या
* यथालन्दिक द्वारा क्षेत्रप्रतिलेखना
द्र यथालंद
* गणधर द्वारा साध्वी योग्य क्षेत्र प्रतिलेखना द्रस्थविरकल्प
५. मार्गवर्ती प्रतिलेखना
६. क्षेत्र - प्रवेश - विधि : पौरुषी निषेध
० सूत्र - अर्थपौरुषी का निषेध क्यों ?
७. निर्दोष उपाश्रय की गवेषणा
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८. वर्षावासयोग्य क्षेत्र
० जघन्य मध्यम - उत्कृष्ट वर्षा क्षेत्र
• गोरसभावित क्षेत्र उत्कृष्ट क्यों ? ९. आगाढ क्षेत्र
१०. प्रत्युपेक्षित क्षेत्र - समीक्षा : आचार्य द्वारा निर्णय * एक द्वार वाले क्षेत्र में रहना निषिद्ध १. क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के योग्य-अयोग्य
वेयावच्चगरं बाल वुड्ढ खमयं वहंतऽगीयत्थं । गणवच्छे अगमणं, तस्स य असती य पडिलोमं ॥ सामायारिमगीए, जोगिमणागाढ खमग पारावे । वेयावच्चे दायण, जुयल समत्थं व सहियं वा ॥ (बृभा १४६४, १४७१) छह व्यक्ति क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के अयोग्य हैं१. वैयावृत्त्य करने वाला ३. वृद्ध ५. योगवाही ४. क्षपक ६. अगीतार्थ
२. बाल
गणावच्छेदक को क्षेत्र - प्रत्युपेक्षा के लिए भेजना
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द्र शय्या
क्षेत्रप्रतिलेखना
चाहिए। उसके अभाव में प्रतिलोम (अगीतार्थ, योगवाही आदि) क्रम से भेजना चाहिए। इनको भेजने में भी इस विधि का पालन आवश्यक है
अगीतार्थ - इसे ओघनिर्युक्ति की सामाचारी का प्रशिक्षण देकर भेजना चाहिए।
योगवाही - अनागाढ़ योगवाही को भेजना चाहिए। क्योंकि वह अपने संकल्प को स्थगित कर सकता है।
क्षपक- इसे पारणा कराकर, 'कार्य पूर्ण न हो, तब तक तपस्या नहीं करनी है' ऐसी शिक्षा देकर भेजना चाहिए । वैयावृत्त्यकर - सेवा करने वाला मुनि वहां रहने वाले साधुओं को स्थापनाकुल बताकर फिर वहां से प्रस्थान करे। बाल-वृद्ध - दृढ़शरीरी बाल-वृद्ध युगल जाए अथवा वृषभ के
साथ जाए।
२. क्षेत्रप्रतिलेखना : गण को आमंत्रण
थुइमंगलमामंतण, नागच्छइ जो व पुच्छिओ न कहे।" करी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं ।" (बृभा १४६१, १४६३)
आचार्य आवश्यक सम्पन्न होने पर तीन बार स्तुतिमंगल करके गण को आमंत्रित करते हैं । बुलाने पर यदि कोई नहीं आता है या प्रत्युपेक्षणीय क्षेत्र के बारे में पूछे जाने पर जानता हुआ भी मौन रहता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
जब सब साधु एकत्रित होते हैं, तब आचार्य पूछते हैंआर्यो ! हमारा मासकल्प पूर्ण हो रहा है, अब अन्य क्षेत्र प्रत्युपेक्षणीय है, अतः सम्प्रति कौन सी दिशा प्रशस्त है ? अमुक दिशा प्रशस्त है - क्षेत्रज्ञायक मुनियों द्वारा ऐसा कहे जाने पर सर्वसम्मति से उस दिशा में प्रस्थान करना चाहिए।
३. गण को आमंत्रित नहीं करने के दोष
.....पेसेइ जइ अणापुच्छिउं गणं तत्थिमे दोसा ॥ सीसे जड़ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छंति ॥ तरुणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा ॥ (बृभा १४५४, १४५७, १४५८)
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