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आगम विषय कोश--२
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श्रमण
० नेत्र, मुख, नासिका, कान, ललाट और ग्रीवा की लम्बाई
४४ अंगुल उन्मान का नाप व्यक्ति के अपने पर्वांगुल से किया जाता है। मध्यमा अंगुली का मध्य पर्व या अंगुष्ठ का मध्य पर्व अंगुल प्रमाण का मापक माना जाता है। अंगुल का परिमाण८ यव= १ अंगुल-३ इंच। २४ अंगुल १ हाथ-१८ इंच।
__ उपर्युक्त अंगुल प्रमाण से एक सौ आठ अंगुल (६ फिट ९ इंच) की ऊंचाई वाला व्यक्ति उत्तम पुरुष, ९६ अंगुल (६ फिट) की ऊंचाई वाला व्यक्ति मध्यम पुरुष और ८४ अंगुल (५ फिट ३ इंच) की ऊंचाई वाला व्यक्ति अधम पुरुष माना गया है।
वर्तमान में आत्मांगुल से १०० अंगुल (६ फिट ३ इंच) की ऊंचाई श्रेष्ठ, ९२ अंगुल (५ फिट ९ इंच) की ऊंचाई मध्यम और ८४ अंगुल (५ फिट ३ इंच) की ऊंचाई निम्न मानी गई है।-अनु ३९० का टिप्पण) शवपरिष्ठापन-मुनि के शव-परिष्ठापन की विधि।
द्र महास्थंडिल शिष्य-अनुशासन में रहने वाला। द्र अंतेवासी शीतगृह-वातानुकूलित आलय ।
वड्वकीरयणणिम्मियं चक्किणो सीयघरं भवति, वासासु णिवाय-पवातं, सीयकाले सोह, गिम्हे सीयलं..... सव्वरिउक्खमं।
(निभा २७९४ की चू) शीतघर चक्रवर्ती के वर्धकिरन द्वारा निर्मित होता है। वह सब ऋतुओं में अनुकूल-वर्षाऋतु में निवात-प्रवात (बरसाती हवा से अप्रभावित), शीतकाल में गर्म और ग्रीष्मकाल में ठंडा रहता है। * संघ को शीतघर की उपमा
द्र संघ शैक्ष-नवदीक्षित।
द्र चारित्र
२. भिक्षु कौन? . * भिक्षाविधि
द्र पिण्डैषणा * श्रमण की सामाचारी
द्र स्थविरकल्प ३. श्लथ श्रमण के प्रकार : पार्श्वस्थ आदि ० पार्श्वस्थ के प्रकार ० यथाच्छंद का स्वरूप पार्श्वस्थ और यथाच्छंद में अंतर ० पार्श्वस्थ आदि श्रमणों का आचार ० कुशील का स्वरूप ० अवसन्न का स्वरूप एवं प्रकार ० संसक्त का स्वरूप ४. काथिक ० पासणिअ/पश्यक/प्राश्निक ० मामक, संप्रसारक ५.नित्यक श्रमण ६. लिंगधारक श्रेणिबाह्य : शर्कराघट दृष्टांत * श्रामण्य का सार
द्र अधिकरण * श्रमण की विहारविधि
द्र विहार १. सुश्रमण कौन
अणिच्चमावासमुति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं। विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए॥ तहागअंभिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसंविण्णु चरंतमेसणं। तुदंति वायाहि अभिद्दवं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं॥ तहप्पगारेहि जणेहि हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए णाणि अदुडुचेयसा, गिरिव्व वाएण ण संपवेवए। उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए। विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽग्गिसिहा वतेयसा, तवोय पण्णा य जसो य वड्डइ॥
(आचूला १६/१-५) प्राणी मनुष्य आदि गतियों में जिस आवास-शरीर आदि को प्राप्त होते हैं, वह अनित्य है-इस अनुत्तर अर्हत्-वचन का श्रवण कर विज्ञ और भयमुक्त मुनि पर्यालोचन-अनित्यता की अनुप्रेक्षा करे, गृहपाश का व्युत्सर्ग करे, आरंभ (हिंसा) और परिग्रह का परित्याग करे।
श्रमण-साधु, मुनि, भिक्षु, निर्ग्रन्थ।
१. सुश्रमण कौन?
* निग्रंथ कौन? * जिनकल्प, यथालंद, परिहारविशुद्धि
द्रनिग्रंथ द्र सम्बद्ध नाम
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