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आगम विषय कोश-२
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आचार्य
......."कारणियं पुण सुत्तं ........॥ ० प्रतिपृच्छा-अनेक शिष्यों की प्रतिपृच्छा का प्रत्युत्तर देना
(व्यभा १७३३) होता है। आचार्य-उपाध्याय हेमंत ऋतु और ग्रीष्मऋतु में एक
० वादिग्रहण-बहुश्रुत आचार्य के पास परवादी आते हैं।
उनके प्रश्नों का निरसन करना होता है अन्यथा प्रवचन की साधु के साथ (कुल दो साधु)विहार कर सकते हैं तथा
प्रभावना नहीं होती। वर्षावास में दो साधुओं के साथ (कुल तीन साधु) रह सकते
० रोगी आदि-विशाल गच्छ में कई साधु ग्लान हो जाते हैं हैं। यह कारणिक/आपवादिक सूत्र है।
तो उनकी सारसंभाल करनी होती है। प्राघूर्णक साधुओं की आयरिय-उवज्झाया, संघयणा धितिय जे उ उववेया। विश्रामणा आदि करानी होती है। इससे सूत्रव्याघात होता है। सत्तं अत्थो व बहं. गहितो गच्छे य वाघातो॥ दर्लभ भिक्षा क्षेत्र छोटा और साध अधिक हों तो भिक्षा के धम्मकहि महिड्डीए, आवास-निसीहिया य आलोए। लिए अन्यत्र भेजने की व्यवस्था करनी होती है। पडिपुच्छवादिगहणे, रोगी तह दुल्लभं भिक्खं॥ इस प्रकार की व्याकुलताओं (व्याघातों) का विस्तृत वाउलणे सा भणिता, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे। वर्णन कल्पाध्ययन के पांचवें उद्देशक में है। नवम दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा॥ . अभिनव गृहीत (नया सीखा हुआ) नौवां-दसवां पूर्व पाहुडविज्जातिसया, निमित्तमादी सुहं च पतिरिक्के। सतत स्मरण के अभाव में विस्मृत हो जाता है। छेदसुतम्मि व गुणणा, अगीतबहुलम्मि गच्छम्मि॥ ० अगीतार्थबहुल विशाल गच्छ में सागरतुल्य नौवें-दसवें पूर्व
(व्यभा १७३५-१७३७, १७३९) का स्मरण, योनिप्राभृत आदि ग्रंथों का गुणन, आकाशगमन निम्न कारणों से दो का विहार अनुज्ञात है
आदि विद्यातिशयों का परावर्तन, निमित्त, योग, मंत्र आदि का ० आचार्य और उपाध्याय वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा अभ्यास तथा छदसूत्रों का परावर्तन दुष्कर होता है । इन सबका वज्रकुड्य के समान धृतिसम्पन्न हों।
अभ्यास एकांत प्रदेश में ही सुखपूर्वक हो सकता है। ० बृहद् गच्छ के कारण प्रभूत गृहीत सूत्र या अर्थ के स्मरण ० आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि में व्याघात हो।
आभिगहितस्स असती, तस्सेव रयोहरणेणऽण्णतरे। व्याघात के कारण ये हैं
पाउंछणुण्णितेण व, पुच्छंति अणण्णभुत्तेणं॥ ० यदि वे आचार्य लब्धिसम्पन्न धर्मकथावाचक हैं, तो उनके
(व्यभा २५२६) पास श्रोताओं का जमघट रहता है।
बाहर से समागत आचार्य के चरणों का प्रमार्जन यदि ० महर्द्धिक राजा आदि उनके पास आते हैं।
आभिग्रहिक साधु (आचार्यचरण-प्रमार्जन मुझे करना है० अन्य साधु धर्मकथा कर रहा हो, तो वे उच्चारणपूर्वक सूत्र
ऐसा अभिग्रहधारी) हो तो वह. अन्यथा कोई भी साध अर्थ का परावर्तन नहीं कर सकते।
आचार्य की निश्रा के रजोहरण से करे अथवा अपरिभुक्त ० आवश्यकी-नैषेधिकी-गच्छ में अनेक साधु हैं। वे बाहर
(किसी के द्वारा काम में नहीं लिए हुए) और्णिक पादप्रोञ्छन जाते समय 'आवश्यकी' तथा उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'नैषेधिकी' का उच्चारण करते हैं। उनका निरीक्षण भी आवश्यक
से करे। निष्कारण आचार्यचरण-प्रमार्जन न करने पर तथा
परिभक्त पादप्रोञ्छन से करने पर मासलघ प्रायश्चित्त आता है। पुनः पुनः स्मारणा के बिना सामाचारी का सम्यक निर्वाह कठिन हो जाता है। ० आलोचना-संघाटक भिक्षाग्रहण कर गुरु के पास आलोचना भिक्षार्थ न जाने के हेतु करते हैं, उस समय गुरु अध्ययननिरत नहीं रह सकते। यदि जेणाहारो उ गणी, स बालवुड्डस्स होति गच्छस्स। रहें तो सम्यक् आलोचना के अभाव में चरणहानि होती है। तो अतिसेसपभुत्तं,
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