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आगम विषय कोश-२
२७५
ज्ञान
लोक के पर्यायों को जानते हैं, जैसे-जीवों की आगति, गति, को अलमस्तु ऐसा कहा जा सकता है। जो ज्ञान की परमकोटि स्थिति, च्यवन और उपपात, उनके द्वारा भुक्त, पीत, कृत तक पहुंच चुका है, जिसके लिए कोई ज्ञान पाना शेष नहीं है,
और प्रतिसेवित, प्रकट कर्म एवं गुप्त कर्म, उनके द्वारा लपित, वह अलमस्तु है।-भ १/२०९ वृ कथित और मनोमानसिक, सर्वलोक के सब जीवों के सब केवली के दो उपयोग यगपत नहीं होते। भावों को जानते हुए-देखते हुए विहरण करते हैं।
-श्रीआको १ केवली पंकसलिले पसाओ, जह होइ कमेण तह इमो जीवो। छद्मस्थ मनुष्य आरगत-इन्द्रियविषय की सीमा में आवरणे झिज्जंते, विसुज्झए केवलं जाव॥ आने वाले शब्दों को सुनता है, वह पारगत-इन्द्रियविषय दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलन्नाणं। की सीमा से परवर्ती शब्द को नहीं सुनता। केवली आरगत अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं नियतं॥ अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती शब्द को
(बभा ३७.३८) जानता-देखता है। केवली इन्द्रियों से नहीं जानता, वह आत्मा जैसे कीचड से कलषित जल कतकचर्ण के योग से से जानता है । वह शब्द की ध्वनितरंगों को साक्षात जान लेता स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही जीव अपूर्वकरण गणस्थान में है, कान से सुनने की कोई अपेक्षा नहीं होती। केवली सबको, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है फिर विशद्ध. विशद्धतर सब ओर से, सब काल में, सब भावों को जानता-देखता है। अध्यवसाय के प्रभाव से आवरण (ज्ञानावरणपंचक. अंतराय- उसका ज्ञान-दर्शन निरावरण होता है।-भ५/६५-६७ भाष्य) वक, दर्शनावरणीय चतुष्क) क्षीण होने पर इतना विशुद्ध हो ६. ज्ञान का प्रयोजन जाता है कि वह केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
..."तदट्ठ जम्हिस्सते णाणं॥ केवलज्ञान का स्वरूप
."दसणाइ आयारा तेसिं अट्ठो। (निभा ४५ चू) १. समस्त द्रव्य-पर्याय जिसके विषय हैं,
दर्शन, चारित्र तप और वीर्य आचार की सम्यक् प्रवृत्ति २. केवल-असहाय, मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष,
एवं प्रयोग के लिए ज्ञान अभिलषणीय है, प्रयोजनीय है। ३. एक-असाधारण, अनन्य सदृश, ४. अनिवारित व्यापार-अविरहित उपयोग,
७. पहले ज्ञान, फिर आचरण ५. अनन्त-ज्ञेय की अनन्तता के कारण,
णाणे सुपरिच्छियत्थे, चरण-तव-वीरियं च तत्थेव" ६. अविकल्पित-भेद रहित,
णज्जति अणेणेति णाणं अत्था, ते य जीवा७. नियत-सर्वकालभावी।
जीव-बंध-पुण्ण-पावासव-संवर-णिज्जरा-मोक्खो य। * केवलज्ञान के प्रकार आदि
एते जया णाणेण सुट्ठ परिच्छिन्ना भवंति तदा चरणतवा द्र श्रीआको १ केवलज्ञान (छास्थ मनुष्य केवल संयम, केवल संवर, केवल
पवत्तंति।......जं चरणतवायारादिविरहितं णाणं तं ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता के द्वारा सिद्ध, प्रशांत,
निच्छयणयंगीकरणेण अण्णाणमेव। (निभा ४६ चू) मुक्त नहीं हो सकते।.... आश्रव या क्लेश के क्षीण हो जाने जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है। ज्ञान से जीव, पर व्यक्ति वीतराग हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता। अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्षसंयम आदि मुक्त होने के परम्पर कारण हैं, किन्तु कोई भी इन तत्त्वों का बोध होता है। सम्यक् तत्त्वबोध होने पर ही जीव केवली हए बिना मुक्त नहीं हो सकता। सामान्य ज्ञानी दर्शन, चारित्र और तप प्रवर्तित होते हैं-उनकी प्रवत्ति में की बात ही क्या, परम अवधिज्ञान वाला व्यक्ति भी मक्त पराक्रम प्रस्फुटित होता है। नहीं हो सकता।-भ १/२००-२०८ भाष्य
दर्शन-चारित्र-तप के आचरण से रहित ज्ञान निश्चय उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हत. जिन और केवली नय के अभिमत में अज्ञान ही है।
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