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________________ आगम विषय कोश- २ १. अवग्रहकल्पिक पढितेय कहिय अहिगय, परिहरति... कप्पितो सो उ।..... (बृभा ४१६ वृ) अवग्रहकल्पिकः "सूत्रमत्र आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तमम् अवग्रहप्रतिमानामकमध्ययनम् । (बृभा ६६९ की वृ) जिसने आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (आचारचूला) के ‘अवग्रह प्रतिमा' नामक सातवें अध्ययन को पढ़ा है, उसके को सुना है, अभ्यास किया है, उस पर श्रद्धा की है और उसके अनुरूप अवग्रह का परिभोग करता है, वह अवग्रहकल्पक है। २. अवग्रह के पांच प्रकार ......पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तं जहा- देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ - ओग्गहे, सागारिय-ओग्गहे, साहम्मियओग्गहे । (आचूला ७/५७) देवेन्द्रः:- शक्र ईशानो वा, स यावतः क्षेत्रस्य प्रभवति तावान् देवेन्द्रावग्रहः । राजा- - चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः, स यावतः षट्खंडभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति तावान् राजावग्रहः । गृहपतिः - सामान्यमण्डलाधिपतिः तस्याप्याधिपत्यविषयभूतं यद् भूमिखण्डं स गृहपत्यवग्रहः । सागारिकः - शय्यातरः, तस्य सत्तायां यद् गृहपाटकादिकं ससागारिकावग्रहः । साधर्मिकाः समानधर्माण: साधवः, तेषां संबंधि सक्रोशयोजनादिकं यद् आभाव्यं क्षेत्रं स साधर्मि(बृभा ६६९ की वृ) कावग्रहः । अवग्रह के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. देवेन्द्र - अवग्रह - शक्र और ईशान का प्रभुत्व - क्षेत्र । २. राज- अवग्रह - चक्रवर्ती आदि महर्द्धिक भूपति का प्रभुत्वक्षेत्र । ३. गृहपति - अवग्रह - सामान्य मण्डलाधिपति का आधिपत्यक्षेत्र | ४१ ४. सागारिक- अवग्रह - शय्यातर का अधिकृत क्षेत्र । ५. साधर्मिक - अवग्रह - समानधर्मा साधुओं का आभाव्य-क्षेत्र । Jain Education International अवग्रह ३. अवग्रह- प्राधान्य और पूर्व अभिनव अनुज्ञा हेट्ठिल्ला उवरिल्लेहिं बाहिया न उ लहंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिनवं च चउसु भय पच्छिमेऽभिनवा ॥ राजावग्रहे राजैव प्रभवति न देवेन्द्रः, ततो देवेन्द्रेणानुज्ञातेऽप्यवग्रहे यदि राजा नानुजानीते तदा न कल्पते तदवग्रहे स्थातुम् ; - अथानुज्ञातो राज्ञा स्वविषयावग्रहः परं न गृहपतिना, ततस्तदवग्रहेऽपि न युज्यतेऽवस्थातुम्; एवमुपरितनैरधस्तना बाध्यन्ते ।" "यो यदावग्रहार्थं साधर्मिकमुपसम्पद्यते स सर्वोऽपि तदानीं तमनुज्ञाप्यैवावतिष्ठते नान्यथेत्यभिनवानुज्ञैवैका । (बृभा ६७० वृ) पूर्व - पूर्व अवग्रह उत्तर- उत्तर अवग्रह से क्रमशः बाधित है। (यथा- राजावग्रह में राजा ही प्रभु है, देवेन्द्र नहीं । देवेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होने पर भी राजा की अनुमति के बिना मुनि उसके क्षेत्र में नहीं रह सकते। इसी प्रकार क्रमशः राजा, गृहपति और शय्यातर द्वारा अनुज्ञात क्षेत्र में साधर्मिक की अनुमति के बिना नहीं रहा जा सकता।) अतः किसी भी अवग्रह को एकांततः प्राधान्य प्राप्त नहीं है । प्रथम चार अवग्रहों में पूर्व और अभिनव अनुज्ञा की भजना है तथा अंतिम साधर्मिक अवग्रह में अभिनव अनुज्ञा ही होती है, पूर्व अनुज्ञा नहीं । ( पूर्व समागत साधुओं द्वारा अनुज्ञापित जो अवग्रह है, पश्चात् आगन्तुक पुनः अनुज्ञा लिए बिना ही उस अवग्रह का परिभोग करते हैं - यह पूर्वानुज्ञा है । यथाचिरंतन साधुओं ने जिस अवग्रह की देवेन्द्र से अनुज्ञा ली, वार्तमानिक साधु उसी पूर्वानुज्ञा का अनुवर्तन करते हैं। जब अन्य देवेन्द्र उपपन्न होता है, तब तत्कालवर्ती साधु उसके अवग्रह की अनुज्ञा लेते हैं - यह उनकी अभिनव अनुज्ञा है, अपर साधुओं की पूर्व अनुज्ञा है ।) जद्दिवसं समणा निग्गंथा सेज्जा- संथारयं विप्पजहंति, तद्दिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्व मागच्छेज्जा ॥ अथ या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्ने अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे ॥ ( क ३/२८, २९) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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