________________
आगम विषय कोश - २
लोक में भी दोष और विभव ( धन अथवा सामर्थ्य) के अनुरूप दण्ड दिया जाता है तो लोकोत्तर की तो बात ही क्या ? अन्यथा तीर्थ का उच्छेद हो जाता है। प्रायश्चित्तदाता निष्करुण हो तो अपराधी की विशोधि भी नहीं होती ।
२६. दोष स्वीकृति के बिना प्रायश्चित्त नहीं
४१३
पम्हुट्टे पडसारण, अप्पडिवज्जंतयं न खलु सारे । जइ पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं पि पच्चक्खी ॥ (व्यभा ३१९ ) साधु मूलगुण-उत्तरगुण संबंधी अतिचारों की आलोचना करते हुए कुछ आलोचनीय को भूल जाता है तो आगमव्यवहारी उसे वह आलोचनीय बात याद दिला देते हैं। यदि वह स्वीकार कर लेता है तो ठीक है, अन्यथा उसे प्रतिस्मारणा नहीं करवाते ।
(वे जान लेते हैं कि यह स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए उसे निष्फल स्मारणा नहीं करवाते । आगमव्यवहारी अमूढलक्ष्य होते हैं। आलोचक के अस्वीकार करने पर उसे प्रायश्चित्त नहीं देते।) २७. दोषों के एकत्व के हेतु
जिणचोद्दसजातीए, आलोयणदुब्बले य आयरिए । एतेण कारणेणं दोसा एगत्तमावन्ना ॥ घतकुडगो उ जिणस्सा, चोहसपुव्विस्स नालिया होति । दव्वे एगमणेगे, निसज्ज एगा अणेगा य ॥ मास - चउमासिएहिं, बहूहि वेगं तु दिज्जते सरिसं ।
जातिर्द्विधा - प्रायश्त्तिक जातिर्द्रव्यजातिश्च । तत्र प्रायश्चित्तकजातिमधिकृत्येदमुच्यते, ''बहुषु लघुमासिकेषु प्रतिसेवितमासानामपि सादृश्यत्वात् आलोचनायामपि सर्वेषामशठभावेनैकवेलायामालोचितत्वात् एकं लघुमासिकं दातव्यं, एवं बहुषु गुरुमासिकेषु प्रतिसेवितेष्वेकं गुरुकम् । (व्यभा ४३७, ४३८, ४४५ वृ) विभिन्न दोषों के एकत्व में छह हेतु बनते हैं१. जिन ४. आलोचना
५.
२. चौदहपूर्वी आदि ३. एकजातीय दोष
. दुर्बल अपराधी ६. आचार्य
जिन के लिए घृतकुटक तथा चौदहपूर्वी के लिए नालिका दृष्टांत निरूपित है। एकजातीय में एक-अनेक द्रव्यविषयक तथा आलोचना में एक-अनेक निषद्या विषयक कथन है 1
Jain Education International
०
जाति के दो प्रकार हैं- प्रायश्चित्तकजाति तथा द्रव्यजाति। यहां प्रायश्चित्तकजाति गृहीत है। मास, चतुर्मास आदि प्रायश्चित्त की अनेक जातियां - प्रकार । उनको पिंडित कर प्रायश्चित्त का कथन किया जाता है । जैसे- किसी ने बहुत लघुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवनाएं मंद अनुभावों से की हैं, उन सबकी आलोचना एक साथ एक समय में करता है, ऋजुभावों से आलोचना करता है और प्रतिसेवित मासों की सदृशता है तो उसे उन सब एकजातीय प्रतिसेवनाओं का एक लघुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसी प्रकार बहुत गुरुमासिक प्रतिसेवनाओं का एक गुरुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है।
• एक आलोचना एक निषद्या - गुरु जितनी बार आलोचना देते हैं, उतनी बार निषद्या करनी होती है। सभी अपराधों की एक साथ आलोचना देने पर एक ही निषद्या करनी होती है ० जिन : घृतकुट दृष्टांत
उप्पत्ती रोगाणं, तस्समणे ओसधे य विब्भंगी । नाउं तिविधामयिणं, देंति तथा ओसधगणं तु ॥ एक्केणेक्को छिज्जति, एगेण अणेग णेगेहि एक्को ।
गेहिं पि अणेगे, पडिसेवा एव मासेहिं ॥ एक्कोसण छिज्जति, केइ कुविता य तिण्णि वातादी । बहुएहिं छिज्जंती, बहूहि एक्केक्कतो वा वि॥ विभंगी व जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोधी य ओसहाई, तीए जिणा उ वि सोहंति ॥ एसेव य दितो, विब्भंगिकतेहिं वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करेंति किरियं, सोहेंति तधेव पुव्वधरा ॥
प्रायश्चित्त
मिथ्यादृष्टिरुत्पन्नाऽवधिर्विभंगी क्वचिदेकेन घृतकुटेन एको वातादिको रोग: छिद्यते, एष प्रथमो भंग: क्वचिदेकेनघृतकुटेन अनेके त्रयोपि वातादयो दोषाः छिद्यन्ते, एष द्वितीयः तथा क्वचिदनेकैर्धृतकुटैरेको ऽत्यंतमवगाढो रोगो वातादिकश्छेदमुपयाति एष तृतीयः क्वचिदनेकैर्धृतकुटैरनेके वातादयो दोषा उपशाम्यन्ति, एष चतुर्थो भंग: विभंगज्ञानिनः सर्वरोगाणां निदानमेकानेकौषधसामर्थ्यं चावबुध्यमाना उपसम्पन्नानां रोगिणां घृताद्यौषधगणं प्रयुञ्जन्ते । (व्यभा ४३९-४४३ वृ)
चिकित्साकाल में एक विभंगज्ञानी - मिथ्यादृष्टि अवधिज्ञानी रोगों की उत्पत्ति (निदान) और उन रोगों की शामक औषधि को
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org