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अवग्रह
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आगम विषय कोश--२
के द्वारा अवगृहीत अवग्रह में नहीं रहूंगा।'
चक्कवट्टिउग्रहो जहण्णेणं सत्त वाससया बंभचौथी प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता दत्तस्स, उक्कोसेणंचउरासीइपुव्वसयसहस्साइं भरहस्स। है-'मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह ग्रहण नहीं करूंगा,
(बृभा ६८२, ६८३ वृ) दूसरों द्वारा अवगृहीत अवग्रह में रहूंगा।
देवेन्द्र शक्र का कालावग्रह दो सागरोपम का होता है पांचवीं प्रतिमा-जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता
क्योंकि शक्रेन्द्र की आयु स्थिति दो सागरोपम की है। है-'मैं अपने लिए अवग्रह ग्रहण करूंगा।
चक्री-अवग्रह-जघन्य अवग्रह ब्रह्मदत्त चक्री का सात सौ छठी प्रतिमा-वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी जिसके अवग्रह
वर्ष का तथा उत्कृष्ट अवग्रह भरत चक्रवर्ती का चौरासी में रहे, वहां तृण, कुश, कुर्चक, पिप्पल या पलाल से निर्मित
लाख पूर्व वर्ष का है। संस्तारक उपलब्ध हो, उसके प्राप्त होने पर संवास करे, उसके
शेष नृपति, गृहपति तथा शय्यातर का जघन्य अवग्रह प्राप्त न होने पर उत्कटक या निषद्या आसन में विहरण करे
अन्तर्मुहूर्त का है। उत्कृष्ट अवग्रह वैकल्पिक है (जिसकी बैठे।
जितनी आयु है या जितने समय तक राज्य करता है, उतना सातवी प्रतिमा-वह भिक्षु या भिक्षुणी यथासंस्तृत उत्कष्ट कालावग्रह है)। अवग्रह की ही याचना करे, जैसे पृथ्वीशिला या काष्ठशिला साधर्मिक का ऋतुबद्धकाल में जघन्य अवग्रह एक यथासंस्तुत हो, उसके मिलने पर संवास करे, उसके न मास तथा वर्षावास में उत्कृष्ट अवग्रह चार मास है । ग्लानमिलने पर उत्कटक या नैषधिक आसन में विहरण करे- सेवा आदि विशेष प्रयोजन होने पर इसमें न्यनाधिकता भी हो बैठे।
सकती है। अमुक प्रकार का स्थान मेरे लिए ग्राह्य है, अन्य (इस विषय में शिष्य ने प्रश्न किया-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्रकार का नहीं-यह प्रतिमा सामन्य है।
ने कुमार अवस्था में अट्ठाईस वर्ष, मांडलिक रूप में छप्पन वर्ष, दूसरी प्रतिमा गच्छवर्ती साम्भोजिक और उद्यक्तविहारी दिगविजय में सोलह वर्ष व्यतीत कर केवल छह सौ वर्षों तक असांभोजिक साधुओं की अपेक्षा से है, क्योंकि वे परस्पर एक- चक्रवर्ती पद का उपभोग किया था। इसी प्रकार भरत चक्रवर्ती दूसरे के लिए अवग्रह की याचना करते हैं।
भी सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा हजार वर्ष तक तीसरी प्रतिमा यथालंदिक साधुओं की अपेक्षा से है।
मांडलिक के रूप में रहे। साठ हजार वर्ष विजययात्रा में व्यतीत क्योंकि वे आचार्य से सत्रार्थ विशेष की वाचना लेना चाहते हैं कर फिर कुछ न्यून छह लाख वर्ष तक चक्रवर्तित्व का उपभोग तो उनके लिए अवग्रह ग्रहण करते हैं।
किया था। तब ब्रह्मदत्त सात सौ वर्ष और भरत चौरासी लाख चौथी प्रतिमा उन अभ्युद्यतविहारी साधुओं के लिए
पूर्व तक चक्रवर्ती रहे-यह कैसे कहा जा सकता है? । है, जो गच्छ में रहकर जिनकल्प आदि स्वीकार करने से पूर्व
आचार्य कहते हैं-योग्यता की दृष्टि से भरत आदि परिकर्म करते हैं।
जन्म से ही चक्रवर्ती होते हैं। चक्रवर्ती के उत्पन्न होते ही पांचवीं प्रतिमा जिनकल्पी साधु की अपेक्षा से है। छठी
उसके प्रभावक्षेत्र के निवासी देव यह जानकर हर्ष मनाते हैं
कि समस्त पृथ्वी का स्वामी उत्पन्न हो गया है। वे देव चक्री और सातवीं प्रतिमा जिनकल्पिक आदि की अपेक्षा से है।
की भाग्य-संपदा आदि से आकृष्ट हो सब प्रकार की अनुकूलताएं ९. इन्द्र और चक्री का कालावग्रह
आपादित करने में तत्पर तथा उसकी विजय के अभिलाषी दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्त सय पुव्व चुलसीई। बने हुए शत्रुओं द्वारा उत्पन्न बाधाओं का निरसन करने में सेसनिवम्मि मुहत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा॥ प्रवृत्त होते हैं, अतः यथोक्त कालावग्रह समीचीन ही है एवं गहवइ-सागारिए वि चरिमे जहन्नओ मासो। अथवा उपयोग उपयुक्त बहुश्रुत इस कथन का अन्य प्रकार से उक्कोसो चउमासा, दोहि वि भयणा उ कज्जम्मि॥ निर्वचन कर सकते हैं।
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