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ग्रंथ परिचय
यतीन्द्र शब्द का प्रयोग किया है। सं. १६६१ में हस्तलिखित २२७ पत्रों वाली इस प्रति में चूर्णि का ग्रंथाग्र १४७८७ बताया गया है।
• वृत्ति—आचार्य मलयगिरि ने बृहत्कल्पभाष्य की अपूर्ण वृत्ति लिखी। वे ६४९० गाथाओं में से प्रारंभ की पीठिका की मात्र ६०६ गाथाओं की ही वृत्ति लिख पाए, जिसका ग्रंथमान ४६०० श्लोकप्रमाण है। शेष समग्र वृत्ति आचार्य क्षेमकीर्त्ति द्वारा अनुसन्धित है। आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्त्ति ने विषय की विशदता एवं निरूपण की स्पष्टता के लिए शताधिक ग्रंथांश (संस्कृत - प्राकृत श्लोक एवं कथानक) उद्धृत किये हैं। यथा
तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्त्तते नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥ न वि लोणं लोणिज्जइ, न वि तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा ॥ अनुयोगाधिकार में अधिकाक्षर के संदर्भ में उद्धृत वंजुलवृक्ष और वानर का कथानक पठनीय है.
तो
कामित सरोवर के तट पर विशाल वंजुल वृक्ष था । जो प्राणी उस पर चढ़कर सरोवर में गिरता, वह यदि तिर्यंच होता मनुष्य बन जाता, मनुष्य होता तो देव बन जाता। एक वानर - वानरी युगल उसमें गिरा और मनुष्य युगल बन गया । बंदर के मन में लोभ जागा । मानुषी रूप वानरी के निषेध करने पर भी वह पुनः जल में गिरा, देव के बदले पुनः बंदर ही हो गया। आज के जीवविज्ञानजगत् के लिए यह अन्वेषणीय विषय हो सकता है कि क्या किसी विशेष वृक्ष और जल में ऐसे परमाणु हो सकते हैं, जो योनि को परिवर्तित कर सकें।
मलयगिरि की भाषा प्रसादगुण युक्त और शैली प्रौढ़ है। क्षेमकीर्त्ति वृत्ति भी भलयगिरि-वृत्ति की कोटि की है । यत्र-तत्र प्राकृत- संस्कृत श्लोक और कथानक विविध विज्ञानशाखाओं का स्पर्श करते हैं । परिश्रावी - अपरिश्रावी के प्रसंग में प्रदत्त अमात्य के दृष्टांत में वृक्षविज्ञान या ध्वनिविज्ञान का एक विचित्र तथ्य उजागर हुआ है
एक राजा के कान गर्दभ के कान जैसे थे, जो सदा खोल से आवृत रहते थे। एक दिन मंत्री ने देख लिया और वह अत्यंत विस्मित हुआ । राजा ने इस बात को गुप्त रखने का निर्देश दिया । अमात्य इसे पचा न सका । वह जंगल में गया। एक वृक्ष के कोटर में मुंह डालकर गुनगुनाया - गद्दभकन्नो राया, गद्दभकन्नो राया। एक बार किसी ने उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर वादित्र बनाया और संयोग ऐसा बना कि उसे सर्वप्रथम राजा के सामने ही बजाया गया। उस वाद्य से पुनः पुनः गद्दभकन्नो राया ध्वनि सुनकर राजा ने पूछा- अमात्य ! तुमने यह रहस्य किसको बताया था ? अमात्य ने सही बात बता दी। इससे स्पष्ट है कि वनस्पति अत्यंत ग्रहणशील और संवेदनशील है, वह हमारे शब्दोच्चारण से भावित हो जाती है ।
बृहत्कल्पभाष्य को ज्ञान-विज्ञान के विविध रत्नों प्रभास्वर बनाने वाली १७१२ पृष्ठमयी इस वृत्ति का ग्रंथमान ४२६०० श्लोकप्रमाण है । इसका पूर्णाहुति काल वि. सं. १३३२ ज्येष्ठ शुक्ला दशमी है। ५. व्यवहार
यह छेदसूत्र है । व्यवहार का अर्थ है - आलोचना, शुद्धि अथवा प्रायश्चित्त ।" आलोचना के आधार पर आलोच्य सूत्र का नाम व्यवहार रखा गया । आचार्य भद्रबाहु ने नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से इसका निर्यूहण किया । इसके दस उद्देशक हैं, जिनमें कुल दो सौ अट्ठासी सूत्र हैं। इसका ग्रंथपरिमाण है – अनुष्टुप् श्लोक ८६७, जिनमें कुल
१. बृभावृ पृ १, १७७ २. वही, पृ८५, १६६ ३. वही, पृ८९
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४. बृभावृ पृ २३७
५. व्यभा १०६४
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