________________
ग्रंथ परिचय
कल्पनिर्युक्ति का भी है, किन्तु सम्प्रति यह नियुक्ति स्वतंत्र रूप में उपलब्ध नहीं है । वृत्तिकार के अनुसार सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति और भाष्य आज एक ग्रंथ के रूप में प्राप्त है। संघदासगणिक्षमाश्रमण द्वारा प्रणीत प्रस्तुत बृहत्कल्पलघुभाष्य भारतीय साहित्य के इतिहास में एक अद्भुत ग्रंथरत्न है। इसमें तत्कालीन धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों संबंधी महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। अनेक स्थल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से आलोकित हैं।
३८
प्रस्तुत भाष्य में मुनि - आचार का युक्तियुक्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है। मुनि के लिए अनेक प्रकार के साधना मार्ग निर्दिष्ट हैं, जिनमें जिनकल्प की साधना का मार्ग अत्यंत दुर्गम है। जिनकल्पी की शिक्षा, सामाचारी और अवस्थिति का ४६ द्वारों से व्याख्यान किया गया है। भाष्य में लगभग २३४ गाथाओं (बृभा भाग - २) में जिनकल्पी की यथासंभव सर्वांगीण जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ में अयोग्य विद्यार्थी को योग्य बनाने की और उन्मत्त-विक्षिप्त चित्त वाले व्यक्ति को स्वस्थ बनाने की मनोवैज्ञानिक प्रविधियां सोदाहरण प्रस्तुत की गई हैं।
-
अनेक स्थलों पर भाष्यकार की प्राकृतकाव्यमयी छवि उभर कर अभिव्यक्त हुई है। उन्होंने गुरुकुलवास की गरिमा का संगान करते हुए कुछ ऐसी गाथाएं आलेखित की हैं, जिन्हें पढ़ने मात्र से आनन्दानुभूति होती हैनास होड़ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचति ॥ जइमं साहुसंसग्गिं, न विमोक्खसि मोक्खति । उज्जतो व तवे निच्चं न होहिसि न होहिसि ॥ सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा। अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया ॥ जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ । दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं ॥ नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती । वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं ॥ एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताइं खणे खणे । उप्पज्जंति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे ॥ यत्र-तत्र सूक्त - सुभाषितों का प्रयोग भी बहुत आकर्षक और संबोधसंवर्धक है । यथा'तं तु न विज्जइ सज्झं जं धिइमंतो न साहेइ ॥ ' ' धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो ॥' 'मज्झत्थं अच्छंतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ । अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुज्जुत्तो ॥ ' 'जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । "एक्कम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बज्झति वग्घा न य पंजरे दो ॥ ६
भाष्यकार ने विषय की विशदता के लिए लौकिक-लोकोत्तर दृष्टांतों और कथानकों का प्रचुर प्रयोग किया
है, जिनकी संकेत सूची परिशिष्ट १ में दी गई है । ६४९० गाथाओं में संदृब्ध यह भाष्य जीवनदर्शन की विपुल सामग्री से समृद्ध है।
© चूर्णि - कल्पसूत्र एवं उसके लघुभाष्य पर लिखित इस चूर्णि की भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चूर्णिकार की प्रतिपादनशैली अत्यंत सहज, सरल एवं सरस है
........उस्सग्गजोगाणं उस्सग्गं दीवेति । अववायजोगाणं अववायं दीवेति । उभयजोगाणं दो वि दीवेति । पमाएंताण वा दोसे दीवेति । अप्पमादीनं गुणे दीवेति ।.... (बृभा ६४९० की चू प २२७ )
कर्त्ता प्रलम्बसूरि हैं। वृत्तिकार मलयगिरि और क्षेमकीर्त्ति ने चूर्णिकार के लिए क्रमशः यतीश और १. श्रीआको १ (निर्युक्ति)
चूर्ण
२. बृभावृ पृ २
३. प्रस्तुत कोश (जिनकल्प)
४. प्रस्तुत कोश (अंतेवासी, चित्तचिकित्सा)
Jain Education International
५. बृभा ५७१३, ५७१५-५७१९
६. बृभा १३५७, १९४४, २२२७, ३३८६, ४४१० ७. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org