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आगम विषय कोश - २
एक लोहकार कुठार बनाता है, दूसरा नखच्छेदनिका बनाता है। एक व्यक्ति भाला, बाण, शक्ति, शूल आदि शरीरवेधक शस्त्रों का निर्माण करता है। दूसरा आरिका या सूई बनाता है। जो कुठार, भाला, बाण आदि बनाता है, वह तीव्र कर्मबंध करता है और जो नखच्छेदनी, आरिका, सूची आदि बनाता है, वह स्वल्प कर्मबंध करता है ।
सूची के दो प्रकार हैं- कारणसूची और सिलाई की सूची। कारणसूची शत्रु का व्यपरोपण आदि करने के लिए नखों में डाली जाती है। जो इस सूची का निर्माण करता है, वह घोर कर्मों का बंध करता है और जो सिलाई की सूची का निर्माण करता है, वह अल्प कर्मों का बंध करता है। वैसे ही संग्राम में काम आने वाले यान आदि का निर्माण करने वाला महान् कर्मबंध करता है। गमनागमन हेतु वाहन का निर्माण करने वाला स्वल्प कर्मबंध करता है ।
परिणामधारा की विचित्रता के कारण विचित्र कर्मबंध होता है । शस्त्रनिर्माण करते-करवाते समय कुंत आदि वस्तुओं प्रति वैसी बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। (यथा- मैं इन शस्त्रों से शत्रु को मारूंगा - यह संक्लिष्ट अध्यवसाय तीव्र कर्मबंध का हेतु बनता है ।)
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४. शरीर निर्वर्तना : अश्व उत्पादन आदि
ओरालियं एगिंदियादि पंचविधं तं 'जोणिपाहुडातिणा' जहा सिद्धसेणायरिएण अस्साए कता । जहा वा एगेण आयरिएण सीसस्स उवदिट्ठो जोगो जहा महिसो भवति । तं च सुयं आयरियस्स भाइणितेण । सो य णिद्धम्मो उण्णिक्खतो महिसं उप्पादेउं सोयरियाण हट्ठे विक्किणति । आयरिएण सुयं । तत्थ गतो भणेति - किं ते एएण ? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि दव्वे आहराहि ते य आहरिता, आयरिएण संजोतिता, एगंते थले णिक्खित्ता, भणितो एत्तिएण काण ओक्खणेज्जाहि, अहं गच्छामि, तेण उक्खत्तो दिट्ठीविसो सप्पो जातो, सो तेण मारितो, अधिकरणच्छेओ, सो वि सप्पो अंतोमुहुत्तेण मओ । (निभा १८०४ की चू) योनिप्राभृत आदि ग्रंथों के आधार पर एकेन्द्रिय यावत्
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अधिकरण
पंचेन्द्रिय प्राणियों के औदारिक शरीर का निर्वर्तन किया जा सकता | आचार्य सिद्धसेन ने अपने भक्त राजा की प्रार्थना पर अश्वों का उत्पादन किया था।
एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों को महिषों के उत्पादन का योग बता रहे थे। उस योग का पूरा विवरण आचार्य के भानजे ने सुन लिया। वह हिंसक वृत्ति का था । वह उस योग के अनुसार महिषों का उत्पादन करता और कसाई को बेच देता । आचार्य ने यह सुना। वे उसके पास गए और बोले- अरे ! इससे क्या ? मैं तुझे रत्न उत्पादन का योग बताऊंगा। तुम अमुक-अमुक द्रव्य ले आओ। वह सारे द्रव्य ले आया। आचार्य ने उनकी संयोजना कर, एकान्त में स्थापित कर उससे कहा- इतना समय बीतने पर इसको उठाना। मैं जा रहा हूं। समय बीतने पर उसने उसे उठाया । उससे एक दृष्टिविष सर्प निकला, जिससे वह वहीं मर गया । अन्तर्मुहूर्त्त के बाद वह सर्प भी मर गया।
वैक्रिया - ऽऽहारकशरीरे अपि यन्निष्कारणे निर्वर्त्तयति, परशु - कुन्तादीनि वा करोति, तन्निर्वर्त्तनाधिकरणमुच्यते । (बृभा २६८१ की वृ)
वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर का भी निष्कारण निर्माण करना, अथवा परशु, कुंत आदि का निर्वर्तन करना निर्वर्तना अधिकरण कहलाता है।
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• मूलउत्तरगुणनिर्वर्तना : शरीर संघात परिशाटकरण निव्वत्तणा य दुविधा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूले पंचसरीरा, दोसु तु संघातणा णत्थि ॥ संघातणा य पडिसाडणा य उभयं व जाव आहारं । उभयस्स अणियतठिती, आदि अंतेगसमओ तु ॥ हविपूयो कम्मगरे, दिट्टंता होंति तिसु सरीरेसु । कण्णे य खंधवण्णे, उत्तरकरणं व तीसु तु ॥ संघाडणा य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो ।..... ( निभा १८०१ - १८०४ )
निर्वर्तनाअधिकरण के दो प्रकार हैं
१. मूलगुण निर्वर्तना - यह पांच शरीरों से संबंधित है । तैजस और कार्मण शरीर में संघात नहीं होता, क्योंकि ये अनादि हैं।
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