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स्वाध्याय
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आगम विषय कोश-२
पुव्वगहितं च नासति, अपुव्वगहणं कओ सि विकहाहिं। (जिन आगमों का स्वाध्याय जिस काल में निषिद्ध है, वह दिवस-निसि-आदि-चरिमासु चतुसु सेसासु भइयव्वं॥ काल उन आगमों के लिए व्यतिकृष्ट काल है। दिन और रात की
दिवसस्स पढमचरिमासु णिसीए य पढमचरिमासु य- दूसरी तथा तीसरी पौरुषी में कालिकश्रुत का स्वाध्याय निषिद्ध है। एयासु चउसु वि कालियसुयस्स गहणं गुणणं च करेग्ज। निर्ग्रन्थ की निश्रा का आपवादिक विधान इसलिए है कि सेसासुत्ति दिवसस्स बितियाए उक्कालियसुयस्स गहणं करेति साधु-साध्वियों की परस्पर वाचना या स्वाध्याय के लिए दिन का अत्थं वा सुणेति। ततियाए वा भिक्खं हिंडइ, अह ण दूसरा-तीसरा प्रहर उचित है।) हिंडति तो उक्कालियं पढति, पुव्वगहियमुक्कालियं वा ९. अकाल में श्रुतस्वाध्याय : पृच्छा परिमाण गुणेति, अत्थं वा सुणेइ। णिसिस्स बिइयाए एसा चेव
जे भिक्खू कालियसुयस्स परं तिण्हं पुच्छाणं भयणा सुवइ वा। णिसिस्स ततियाए णिहाविमोक्खं करेइ,
पुच्छति.."दिट्ठिवायस्स परं सत्तण्डं पुच्छाणं उक्कालियं गेण्हति गुणेति वा। (निभा ६०७१ चू)
पुच्छति ॥
(नि १९/९, १०) जो भिक्षु चार काल की स्वाध्यायपौरुषी नहीं करता, वह
पुच्छाणं परिमाणं, जावतियं पुच्छति अपुणरुत्तं । चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
पुच्छेज्जाही भिक्खू, पुच्छ णिसजाए चउभंगो॥ जो विकथाओं में प्रमत्त रहता है, वह गुणन-स्मरण के अहवा तिण्णि सिलोगा, ते तिसुणव कालिएतरे तिगा सत्त। अभाव में पूर्व गृहीत श्रुत को नष्ट कर देता है तथा अपूर्वश्रुत का ..
जत्थ य पगयसमत्ती, जावतियं वाचिओ गिण्हे ॥ ग्रहण नहीं कर पाता है।
नयवातसुहुमयाए, गणिते भंगसुहुमे णिमित्ते य। कालिकश्रुत के ग्रहण-गुणन के चार काल हैं- दिन का गंथस्स य बाहल्ला, सत्त कया दिद्रिवातम्मि॥ प्रथम व अंतिम प्रहर तथा रात्रि का प्रथम व अंतिम प्रहर।
(निभा ६०६०, ६०६१, ६०६३) मुनि दिन के दूसरे प्रहर में उत्कालिक श्रुत का ग्रहण अथवा अर्थश्रवण करता है। तीसरे प्रहर में भिक्षाटन करता है,
संध्याकाल और अस्वाध्याय काल में कालिकश्रुत की तीन अन्यथा उत्कालिकश्रुत पढ़ता है या पूर्वगृहीत उत्कालिकत का से अधिक तथा दृष्टिवाद की सात से अधिक पृच्छा (प्रश्न) करने गुणन/स्मरण/परावर्तन करता है या अर्थ सुनता है।
वाला भिक्षु प्रायश्चित्तभागी होता है। दिन के दूसरे प्रहर की तरह रात्रि के दूसरे प्रहर में भी
अपुनरुक्त रूप से जितना पूछा जाता है, वह एक पृच्छा उत्कालिक श्रुत का ग्रहण-श्रवण करता है अथवा शयन करता
है। इसके चार विकल्प हैंहै । रात्रि के तीसरे प्रहर में निद्राविमोक्ष-शयन करता है अथवा
१. एक निषद्या, एक पृच्छा। ३. अनेक निषद्या, एक पृच्छा। उत्कालिकश्रुत का ग्रहण-गुणन करता है।
२. एक निषद्या, अनेक पुच्छा। ४. अनेक निषद्या, अनेक पृच्छा।
अथवा एक पृच्छा का परिमाण है तीन श्लोक। इस प्रकार अनुप्रेक्षा सर्वत्र अविरुद्ध है-सर्वकाल में करणीय है।
कालिकश्रुत की तीन पृच्छाओं में नौ तथा दृष्टिवाद की सात ८. व्यतिकृष्टकाल (उद्घाटा पौरुषी): स्वाध्याय के विकल्प
पृच्छाओं में इक्कीस श्लोक होते हैं। अथवा जहां छोटा या बड़ा नो कप्पइ निग्गंथाण वा..."विइगिटे काले सज्झायं
एक प्रकरण सम्पन्न होता है, वह एक पृच्छा है। अथवा आचार्य करेत्तए॥ कप्पइ निग्गीण निग्गंथनिस्साए विइगिट्टे काले की वाचना के जितने अंश का उच्चारण या ग्रहण किया जा सकता सज्झायं करेत्तए॥
(व्य ७/१४, १६) है, वह एक पृच्छा है। साधु अथवा साध्वी व्यतिकृष्ट काल (उद्घाटा पौरुषी) में दृष्टिवाद की सात पृच्छा क्यों? नैगम आदि सात नय हैं। प्रत्येक स्वाध्याय नहीं कर सकते। साध्वियां निर्ग्रन्थ की निश्रा में व्यतिकृष्ट नय के सौ-सौ प्रकार हैं। दृष्टिवाद में नयवाद की सूक्ष्मता है। वहां काल में स्वाध्याय कर सकती हैं।
भेद-प्रभेद सहित नयों तथा द्रव्यों की प्ररूपणा है। परिकर्म सूत्रों में
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