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आगम विषय कोश-२
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निदान
(भोगों के लिए किया गया निदान तीव्र विपाकी होता तित्थगर-गुरु-साहूसु, भत्तिमं हत्थ-पायसंलीणो। है, वह अकरणीय है, लेकिन मैं राजकुल में उत्पन्न न होकर पंचसमिओ कलह-झंझ-पिसुण-ओहाणविरओ य॥ दरिद्र कुल में उत्पन्न होऊं, जिससे भोगों में अनासक्त रहकर पाएण एरिसो सिज्झइ त्ति कोइ पुण आगमेस्साए। प्रव्रज्या को स्वीकार कर सकू। ऐसे निदान में क्या दोष है ?) केण हु दोसेण पुणो, पावइ समणो वि आयाई॥
गरु ने शिष्य को समाधान देते हए कहा-दरिद्र कुल जाणि भणियाणि सुत्ते, तहागएसुं नव य निदाणाणि में उत्पन्न होने से मेरी आत्मा असंयम से सुगमता से निकल
(दशानि १३३-१३७) जाएगी-ऐसा जो निदान है, साधु उसका भी परिहार करते हैं एकांत रूप से असंयत का मोक्ष नहीं होता, निश्चित क्योंकि निदान से भववृद्धि होती है। प्रव्रज्या का सारा प्रयत्न
ही उसकी आजाति (जन्म) होती है। किस विशेषता से भव-व्यवच्छित्ति के लिए होता है। मुनि भव-व्यवच्छित्ति के
श्रमण अनाजाति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है? उपायों की मार्गणा करता है। वह भव-प्राप्ति की इच्छा नहीं
___जो श्रमण मूलगुणों और उत्तरगुणों का अप्रतिसेवी होता करता।
है, उनका नाश नहीं करता, इहलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं कोई व्यक्ति इन्द्रनील, मरकत आदि अमूल्य रत्नों को।
होता, सदा निर्दोष भक्त-पान, उपधि और विविक्त शयनअल्पमूल्य में बेच देता है, क्या यह शोभनीय है ? जो दरिद्रकुल
आसन का सेवन करता है, प्रयत्नवान-अप्रमत्त होता है, में उत्पन्न होने का निदान करता है, वह अमूल्य चारित्ररत्न को तीर्थंकर, गुरु और साधुओं के प्रति भक्तिमान होता है, हस्तबेचकर दरिद्रकुल रूपी काच के टुकड़े को प्राप्त करता है। पाद से प्रतिसंलीन, पांच समितियों से समित, कलह, झंझा ६. निदान : कर्मबंध का हेतु
और पैशुन्य से विरत तथा अवधावनविरत-स्थिर संयमवाला संगं अणिच्छमाणो, इह-परलोए य मुच्चति अवस्सं। होता है, वह प्रायः उसी भव में सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छतं जं तु॥ श्रमण भविष्यत काल में सिद्ध होता है। किस दोष के कारण बंधो त्ति णियाणं ति य, आससजोगो य होंति एगट्ठा। श्रमण आजाति को प्राप्त होता है ? ते पुण ण बोहिहेऊ, बंधावचया भवे बोही॥ तथागत-तीर्थंकर ने दशाश्रुतस्कंध (दशा १०/२४-३२)
(बृभा ६३४६, ६३४७) में जो नौ निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला जो ऐहिक-पारलौकिक संग की इच्छा (भोगाशंसा) श्रमण-श्रमणीवर्ग आजाति को प्राप्त होता है। नहीं करता, वह अवश्य मुक्त हो जाता है।
नेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवो इमेहिं तु। जो मोक्षदायी महान तप के द्वारा (प्रतिदान में) तुच्छ पुव्वतवसंजमेहिं, कम्मं तं चावि स फल की आशंसा करता है, यही उसका संग (मुक्ति पद का पूर्व...... सरागावस्थाभाविना तपसा साधवो प्रतिपक्षभूत अभिष्वंग) है।
देवलोकेषूत्पद्यन्ते "पूर्वसंयमेन–सरागेण सामायिकादिबंध, निदान और आशंसायोग-ये पर्यायवाची नाम हैं। चारित्रेण साधूनां देवत्वं भवति। पूर्वतपःसंयमावस्थायां ये बोधि-ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्राप्ति के हेतु नहीं हैं। हि देवायुर्देवगतिप्रभृतिकं कर्म बध्यते ततो भवति अनिदानता आदि गुण कर्मबंध के अपचय के हेतु हैं। उनसे देवेषूपपातः। तदापि कर्म 'संगेन' संज्वलनक्रोधादिबोधिलाभ होता है।
रूपेण बध्यते।
(बृभा ६३४८ वृ) ८. श्रमण की आजाति का हेतु : निदान
साधु भवभ्रमण नहीं चाहते. फिर वे देवलोकों में कामं असंजतस्सा, नस्थि हु मोक्खे धुवमेव आजाई। उत्पन्न कैसे होते हैं ? उनका भव इन कारणों से होता हैकेण विसेसेण पुणो, पावइ समणो अणायाइं॥ पूर्वतप-संयम-सरागअवस्था में आचरित तप और सामायिक मूलगुण-उत्तरगुणे, अप्पडिसेवी इहं अपडिबद्धो। आदि चारित्र के कारण साधु देव होते हैं। (वीतरागअवस्था भत्तोवहि-सयणासणविवित्तसेवी सया पयओ॥ से पहले होने के कारण सरागअवस्था पूर्व अवस्था है।)
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