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________________ जीवनिकाय २६२ आगम विषय कोश-२ १६. सचित्त-अचित्त जल के विकल्प अव्यक्तता के कारण लक्षित नहीं होता, किन्तु उस आहार से १७. उत्पल आदि के अचित्त होने का कालमान शरीर उपचित होता है। वैसे ही पृथ्वी में सूक्ष्म स्नेह गुण |१८. शालि आदि का योनिविध्वंस होता है, जो अत्यंत स्वल्प मात्रा में होता है। उससे प्रचुर १९. सूक्ष्म जीवों के आठ प्रकार स्नेह-सापेक्ष कार्य (शरीर का म्रक्षण आदि) शक्य नहीं है। ० प्राणसूक्ष्म यावत् पुष्पसूक्ष्म एकेन्द्रिय के क्रोध आदि के परिणाम, साकार-अनाकार ० अण्डसूक्ष्म-लयनसूक्ष्म-स्नेहसूक्ष्म उपयोग, सात-असात वेदना-ये सब भाव सूक्ष्मता के कारण २०. बस के चार प्रकार उपलक्षित नहीं होते, अतिशयज्ञानी ही इन्हें जान सकता है। २१. छहकाय : संयम और तीर्थ ___ जैसे संज्ञी पर्याप्त व्यक्ति क्रोधोदय होने पर आक्रोश * छहकायविराधना और प्रायश्चित्त द्र प्रायश्चित्त करता है, ललाट पर त्रिवली करता है, भृकुटि चढ़ाता है, १. छह जीवनिकाय एकेन्द्रिय वैसा प्रचण्ड क्रोध आदि करने में असमर्थ है। "छज्जीवनिकायाई..."तं जहा-पुढविकाए, ____ * ज्ञानविकास का क्रम : पृथ्वी आदि द्र ज्ञान आउकाए, तेउकाए, वाउकाए, वणस्सइकाए, तसकाए। (पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव अमनस्क होते हैं। इन (आचूला १५/४२) जीवों में मन का ज्ञान नहीं होता. फिर भी संवेदन होता है। ये पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसुहोति सच्चित्ते।। जीव छह स्थानों का अनुभव या संवेदन करते हैं व्यभा ४०११) १. इष्ट-अनिष्ट स्पर्श ५. इष्ट-अनिष्ट यश:कीर्ति छह जीवनिकाय हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय. तेजसकाय. २. इष्ट-अनिष्ट गति ६. इष्ट-अनिष्ट उत्थान, कर्म, ३. इष्ट-अनिष्ट स्थिति बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। ४. इष्ट-अनिष्ट लावण्य -भ १४/६३ * पृथ्वीकाय आदि की परिभाषा, प्रकार, आयुस्थिति, जीवत्वसिद्धि आदि द्र श्रीआको १ जीवनिकाय इनमें भूख, भय, क्रोध, लोभ आदि संवेगों से उत्पन्न संवेदन होता है।-श्रीआको १ संज्ञा २. पृथ्वी आदि की संवेदनशीलता पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुथेरुवमा अक्कंते, मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं। कायिक और वनस्पतिकायिक-ये एक इन्द्रिय वाले जीव एमेव य अव्वत्ता, वियणा एगिंदियाणं तु॥ हैं। ये जीव भी आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास भोयणे वा रुक्खेते वा जहा णेहो तणुत्थितो। करते हैं। ये जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनंतप्रदेशी, क्षेत्र की पाबल्लं नेहकज्जेसु कारें] जे अपच्चलो॥ अपेक्षा से असंख्येयप्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से किसी कोहाई परिणामा, तहा एगिंदियाण जंतूणं। भी स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा से वर्ण-गंध-रसपाबल्लं तेसु कज्जेसु कारेउं जे अपच्चला॥ स्पर्श-युक्त पुद्गल द्रव्यों का श्वासोच्छ्वास लेते हैं, व्याघात (निभा ४२६३-४२६५) । न हो तो छहों दिशाओं में और व्याघात हो तो तीन, चार या एक जराजीर्ण शतायु स्थविर को बलवान् तरुण अपनी । पांच दिशाओं में श्वासोच्छवास करते हैं। वायकायिक जीव पूरी शक्ति के साथ दोनों हाथों से आक्रांत करता है, उस समय वायुकाय का ही उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। स्थविर को जैसी वेदना होती है, पृथ्वीकाय आदि को संघट्टन वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं-इसकी स्वीकृति के समय उससे भी अधिक वेदना होती है। वैज्ञानिक जगत में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व भी उन्मत्त और सुप्त पुरुष के अव्यक्त सुखदुःखानुभव सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। की तरह एकेन्द्रिय जीवों में अव्यक्त चेतना होती है। भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने - जैसे रूक्ष भोजन में भी सूक्ष्म स्नेह गुण होता है, जो के सिद्धांत की स्थापना ही नहीं की है, किन्तु उसका पूरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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