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वाचना
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११. मण्डली में अभ्युत्थान विधि सुत्तस्स मंडलीए, नियमा उट्ठेति आयरियमादी । मोत्तूण पवायंतं, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि ॥ कथेंतो गोयमो अत्थं, मोत्तुं तित्थगरं सयं । न वि उट्ठेति अन्नस्स, तग्गतं चेव गम्मति ॥ काउस्सग्गे वक्खेवया य विकधा विसोत्तिया पयतो । उवणय वाउलणादि य, अक्खेवो होति आहरणे ॥ आरोवणा परूवण, उग्गह तह निज्जरा य वाउलणा । एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुट्टं ॥ (व्यभा २६४४, २६४८, २६५०, २६५१ ) सूत्रमण्डली में वाचना देने वाले आचार्य आदि प्राघूर्णक आदि के आने पर नियमतः अभ्युत्थान करते हैं । अर्थमण्डली में उपविष्ट आचार्य अपने प्रबाचक को छोड़कर शेष कोई भी आये, दीक्षागुरु भी आये, तब भी वे खड़े नहीं होते ।
गणधर गौतम अनुयोगकाल में केवल अपने धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर को छोड़कर अन्य किसी के आने पर खड़े नहीं होते थे। पूर्व आचीर्ण का ही अब आचरण हो रहा है ।
अनुयोगारम्भ के निमित्त कायोत्सर्ग करने के पश्चात् अभ्युत्थानकरण निम्न कारणों से निषिद्ध है—
बार-बार उठने से व्याक्षेप होता है, व्याक्षेप से विकथा, विकथा से इन्द्रिय-मन की विस्रोतसिका (संयमस्थानच्युति) होती है । इसलिए अभ्युत्थान न करते हुए प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिए।
बीच-बीच में बार-बार उठने से चंचलता के कारण नवगृहीत उपनय, निगमन, दृष्टान्त आदि नष्ट हो जाते हैं, प्रारम्भ की हुई पृच्छा विस्मृत हो जाती है । निरन्तर अविच्छिन्न वाचनाश्रवण से शुभ परिणामों की इतनी तीव्रता होती है कि अवधि आदि अतिशायी ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं।
जैसे आरोपणा प्रायश्चित्त के प्ररूपणाकाल में व्याक्षेप होने पर (भंगगहनता के कारण) उसका सम्यक् अवग्रहण नहीं हो पाता, वैसे ही अभ्युत्थान से श्रुतोपयोग की विच्छिन्नता के कारण ज्ञानावरणीयकर्म की यथेष्ट निर्जरा नहीं हो पाती।
पगतसमत्ते काले, अज्झयणुद्देस अंगसुतखंधे । एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु अणुओगो ॥
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आगम विषय कोश- २
केवलिमादी चोद्दस-दस - नवपुव्वी य उट्ठणिज्जो उ। जे तेहि ऊणतरगा, समाण अगुरुं न उट्ठेति ॥ (व्यभा २६६१ - २६६५)
तीन कारणों से अनुयोगकाल में अतिथि साधु के आने पर अभ्युत्थान किया जा सकता है- १. प्राकृत / प्रकरण / विषय की समाप्ति पर । २. स्वाध्यायकाल की संपन्नता पर । ३. अध्ययन- उद्देशकअंगश्रुतस्कंध की सम्पन्नता पर ।
अर्थ की वाचना देते समय केवली, अवधिज्ञानी या मनः पर्यवज्ञानी आ जाये तो अभ्युत्थान करना चाहिए ।
अर्थवाचक को अपने से अधिक ज्ञानी के आने पर उठना चाहिए। यथा - चौदहपूर्वी के आने पर दसपूर्वी को, दसपूर्वी के आने पर नवपूर्वी को, पूर्वधर के आने पर कालिक - श्रुतधर को उठना चाहिए। यदि आगन्तुक समान श्रुत वाला हो और गुरु न हो तो नहीं उठना चाहिये ।
१२. एकाग्रता से महान् उपलब्धि
भासओ सावगो वावि, तिव्वसंजायमाणसो । लभंतो ओहिलंभादी, जधा मुडिंबगो मुणी ॥ एगग्गो उवगिण्हति वक्खिप्पंतस्स वीसुइं जाति । इंदपुर इंददत्ते, अज्जुणतेणे य दिट्टंतो ॥
मुडिम्बको मुनिस्तथा सुहिडिम्बक आचार्यः परमकाष्ठभूते शुभध्याने प्रवृत्त अवध्यादिलब्धिमलप्स्यत यदि तस्य पुष्पमित्रेण ध्यानविघ्नो नाकरिष्यत ।
इन्द्रपुरे पत्तने इन्द्रदत्तस्य राज्ञः सुताः दृष्टान्तः । तेषां कलां अभ्यस्यतां प्रमादविकथादिव्याक्षेपान्न किमप्यवगृहीतमभूत् । यद्यपि किञ्चिदवगृहीतं, तदपि विस्मृतिमुपगतमतएव तै: राधावेधो न कर्तुं शक्यः ।
''सोऽर्जुनकस्तेनोऽगडदत्तेन सह युध्यमानो न कथमप्यगडदत्तेन पराजेतुं शक्यते । ततो निजभार्यातीवरूपवती सर्वालङ्कारभूषिता रथस्य तुण्डे निवेशिता, ततः स्त्रीरूपदर्शनव्याक्षेपात् युद्धकरणं विस्मृतिमुपगतमिति सोऽगडदत्तेन विनाशितः । (व्यभा २६५७, २६५९ वृ) वाचनाचार्य अविच्छिन्नरूप से वाचना देते हैं और श्रावक ( श्रोता / शिष्य) तन्मय होकर सुनते हैं तो उत्तरोत्तर विशिष्ट
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