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ग्रंथ - परिचय
जैन आगमों की रचना के दो प्रकार प्राप्त होते हैं- कृत और निर्यूढ । जिनकी रचना स्वतंत्र रूप से हुई है, वे आगम कृत हैं। द्वादशांगी गणधर द्वारा तथा उपांग आदि विभिन्न आगम भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा कृत हैं। निर्यूढ आगम छह हैं - १. दशवैकालिक २. आचारचूला ३. निशीथ ४. दशाश्रुतस्कंध ५. बृहत्कल्प ६. व्यवहार ।
दशवैकालिक चतुर्दशपूर्वी आचार्य शय्यम्भव द्वारा निर्यूढ है, जिसका संग्रहण हमने श्रीभिक्षु आगम विषय कोश के प्रथम भाग में किया है। शेष पांच आगम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी द्वारा निर्यूढ हैं। प्रस्तुत कोश (भाग-२) इन्हीं पांच निर्यूढ आगमों से संबंधित है।
१. आचारचूला
जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। नन्दी में आगम ( श्रुतज्ञान) के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। अंगप्रविष्ट के बारह प्रकारों में पहला प्रकार है - आचारांग । इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध प्राचीन है। दूसरा श्रुतस्कंध उत्तरकालीन है। उसकी प्रथम श्रुतस्कंध की चूला के रूप में स्थापना की गई है।
आचारांग पांच चूलाओं से युक्त है। उनमें से प्रथम चार चूलाएं द्वितीय श्रुतस्कंध - आचारचूला के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आचारचूला के सोलह अध्ययन हैं। प्रथम सात अध्ययन प्रथम चूला है, सात सप्तैकक द्वितीय चूला है। पन्द्रहवां अध्ययन तृतीय चूला और सोलहवां अध्ययन चतुर्थ चूला है । निशीथ पांचवीं चूला है। आचारचूला के अध्ययनों के नाम, उनके निर्यूहण स्थल आदि प्रस्तुत कोश के आगम विषय में निर्दिष्ट हैं ।
आचारचूला आचारांग के सूत्रपाठों का विस्तार है। इसके रचनाकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु हैं। इसकी विस्तृत 'मीमांसा के लिए देखें - आयारो तह आयारचूला की भूमिका, पृ २१ - २७ । आचारचूला के पन्द्रह अध्ययन मुख्यतया गद्यात्मक हैं, कहीं-कहीं पद या संग्रह गाथाएं भी हैं। सोलहवां अध्ययन पद्यात्मक है।
ग्रंथ परिमाण - कुल अक्षर ९६२१०, अनुष्टुप् श्लोक - ३००६
आचारचूला और दशवैकालिक दोनों ग्रंथों के कुछ अध्ययनों में शाब्दिक और आर्थिक- दोनों प्रकार की पर्याप्त समानता है। आचारचूला और निशीथ में प्रयुक्त विशेष नाम प्रायः सदृश हैं, अतः आचारचूला के विशेष नामों का अनुक्रम निशीथ के विशेष नामानुक्रम के साथ किया गया है।
आचारांग में वर्णित आचार मूलभूत है। उत्तरवर्ती सूत्रों में वर्णित आचार उसका परिवर्धन या विकास है। आचारचूला में भी आचार का परिवर्धन या विकास हुआ है।.....सामयिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर वर्तमान आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद के सिद्धांत की स्थापना और उसके आधार पर विधि-विधानों का निर्माण किया था। आचारचूला उसी श्रृंखला की प्रथम कड़ी है।"
आचारचूला में मुनि की प्रशस्त विहारचर्या का निरूपण है। इसमें दैनिक जीवन में प्रयुक्त आहार, शय्या, गमनागमन, भाषा, वस्त्र, पात्र और अवग्रह - इन विषयों से संबंधित सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियमोपनियम उपदर्शित हैं। मुनि शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शमय पंचविषयात्मक मोह जगत् में रहता हुआ भी वीतरागता के सर्वोच्च शिखर पर १. प्रस्तुत कोश में संगृहीत पांच आगम तथा उनके व्याख्या ग्रंथ २. आनि ११, ३१७
३. दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ५३-७१
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४. निसीहज्झयणं, परिशिष्ट-३, पृ. ५९-१२० ५. आचारांगभाष्यम् भूमिका, पृ २१
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