________________
उपसम्पदा
१५०
१६. स्मारणा आपातकटु : गुटिकांजन दृष्टांत अच्छिरुयालु नरिंदो, आगंतुअविज्जगुलियसंसणया । विसहामि त्तिय भणिए, अंजण वियणा सुहं पच्छा ॥ इय अविणीयविवेगो, विगिंचियाणं च संगहो भूओ । जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं ॥ (बृभा १२७७, १२७८) तीव्रतर संवेग को जानकर दृष्टांत देते हैं
आचार्य प्रमत्त साधुओं के उन्हें स्थिर करने के लिए एक
एक राजा अक्षिवेदना से पीड़ित हो गया। वहां के वैद्य सफल चिकित्सा नहीं कर सके। आगंतुक वैद्य ने कहा- मेरे पास अक्षिशूलप्रशामक गुटिका है। इसे आंख में आंजने से क्षणों के लिए तीव्रतर दुःसह वेदना होगी। यदि आप मुझे मृत्युदण्ड न दें तो मैं गुटिका से आपकी आंखें आंज दूं।
कुछ
मैं वेदना को सहन कर लूंगा-राजा के ऐसा कहने पर वैद्य गुटिका से उसकी आंखें आंज दी। एक बार तो असह्य वेदना हुई, किन्तु कुछ समय पश्चात् ही आंखें स्वस्थ हो गईं।
आचार्य ने दृष्टांत का उपसंहार करते हुए कहा- आर्यो ! उस दुःसह गुटिकाञ्जन के आंजने के समान स्मारणा आदि आपके लिए आपातकटुक हो सकते हैं, किन्तु परिणामसुंदर हैं। इस प्रकार आचार्य अविनीत शिष्यों (प्रतीच्छकों) का परित्याग करते हैं, लौटे हुए परित्यक्त शिष्यों का पुनः संग्रहण करते हैं और जो स्वभाव से विनीत हैं, उनके लिए केवल स्मारणा का प्रयोग करते हैं। यथा-यह क्रिया तुम्हें ऐसे करनी चाहिए।
१७. उपसंपदा के आकर्षण बिंदु : देशाटन आदि सो चरणसुट्ठियप्पा, नाणपरो सूइओ अ साहूहिं । उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणा चेव साहूणं ॥ ........ उवसंपय दीवणा अत्थे ॥ अहवा वि गुरुसमीवं, उवागए देसदंसणम्मि कए । उवसंपय साहूणं, होइ कयम्मी दिसाबंधे ॥ (बृभा १२५०-१२५२)
उपसंपदा के तीन प्रकार हैं
१. देश - दर्शन से लौटकर आए हुए चारित्र में सुस्थित मुनि को सूत्रार्थ की पौरुषी के प्रति जागरूक तथा उसमें पूर्ण
Jain Education International
आगम विषय कोश - २
जानकर और गच्छगत मुनियों द्वारा उसकी प्रशंसा सुनकर अनेक अन्य गच्छगत मुनि उसके पास उपसम्पदा स्वीकार करते हैं और वह उनको यथाविधि अंगीकार करता है 1 २. भावी आचार्य की सूत्रों के अर्थ की सूक्ष्मता में प्रवेश करने की क्षमता को देखकर उसके पास अर्थग्रहण की दृष्टि से उपसम्पदा स्वीकार करते हैं। वह उनके समक्ष सूत्रों के अर्थ प्रकाशित करता है।
३. देशदर्शन कर गुरु के पास आने पर गुरु उसे आचार्य योग्य समझकर आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित कर देते हैं और उसे किसी एक दिशा में विहरण करने की अनुज्ञा प्रदान करते हैं । जब वह वहां से विहरण करता है, तब अन्य गुरुओं की परम्परा के अनेक मुनि (प्रतीच्छक) उसके पास उपसम्पदा ग्रहण कर लेते हैं ।
१८. उपसम्पदाकाल के विकल्प
छम्मासे उवसंपद, जहण्ण बारससमा उ मज्झिमिया । आवकहा उक्कोसे, पडिच्छसीसे तु जाजीवं ॥ (निभा ५४५२) काल की अपेक्षा से उपसम्पदा के तीन प्रकार हैंजघन्यछहमास । मध्यमबारह मास । उत्कृष्टयावज्जीवन ।
उत्कृष्ट उपसम्पदाग्राहक प्रतीच्छक शिष्य जीवनपर्यंत एक ही आचार्य के पास रहता है।
१९. रत्नाधिक की उपसम्पदा ( नेतृत्व) अनिवार्य
दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया बहवे आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो हं कप्पड़ अण्णमण्णमणुवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । कप्पइ पहं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ॥ (व्य ४ / २६, ३२)
दो भिक्षु या अनेक भिक्षु, गणावच्छेदक और आचार्यउपाध्याय एक साथ विहरण करते हों तो वे परस्पर उपसम्पदा स्वीकार किये बिना विहरण नहीं कर सकते (या एक स्थान पर नहीं रह सकते ) । वे रत्नाधिक की उपसम्पदा ( नेतृत्व ) स्वीकार कर विहरण कर सकते हैं । २०. शैक्ष और रानिक के पारस्परिक कर्त्तव्य दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा - - सेहे य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org