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आगम विषय कोश-२
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इन्द्रिय
और उष्ण द्रव्यों का समायोग शरीर की प्रकृति के प्रतिकूल है। भोजन-मण्डली में जो रालिक साधु होता है, वह ११. विकृति-वर्जन से स्वाध्याय में सविधा सर्वप्रथम आचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध, अतिथि आदि को
जागरंतमजीरादी, ण फसे लहवित्तिणं। उत्कृष्ट द्रव्य खिलाकर अवशिष्ट श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ सब अविरोधी जोगीऽहं ति सह लद्धे, विगतिं परिहरिस्सति॥ द्रव्यों को मिला देता है और शेष साधु वह भोजन करते हैं,
(निभा १५९८)
इससे सबकी समता सधती है। यह विधिपरिभोग है।
इससे सबकी समता सधती । रूक्षभोजी मुनि स्वाध्याय आदि के निमित्त रात्रिजागरण १३. पशु का प्रिय भोजन करता हुआ भी अजीर्ण आदि रोगों से ग्रस्त नहीं होता। मैं योगी जड्डो जं वा तं वा, सूमालं महिसओ मधुरमासो। (आगाढ-अनागाढ योगी) हूं'-ऐसा चिन्तन करने वाला मुनि गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छति ...........।। विकृति प्राप्त होने पर भी सुखपूर्वक उसका परिहार कर हत्थिस्स इ8 णलइक्खुमोतगमादी, तं आहारेति। सकता है।
तस्याभावे जंवा अणिद्वं तं वा आहारेति, जंवा कमागयं। १२. परिभोगैषणा-विवेक : आर्यमंगु-समुद्र दृष्टांत महिसो सकमालंवंसपत्तमादी, तस्साभावे तदभावरसगेहि अधिक्खाए, अविधि सइंगालपक्कमे माया। भावितत्वात् अण्णंण चरति, तं अह चरए पुटुिंण गेण्हति। लोभे एसणघातो, दिदतो अज्जमंगहिं॥ एवं आसो हप्पिच्छं (हरिमत्थं ) मुग्गमादि मधुरं,
(निभा १११६) गोणो अज्जुणमाति सुगंधदव्वं। (निभा १६३८ चू) मुनि रसलोलुपता के कारण मात्रा से अधिक खाता हाथी को सरकण्डे, इक्षु, मोदक आदि का भोजन है तथा काक, शुगाल आदि की तरह अविधि से खाता है। प्रिय है। ऐसा भोजन न मिले तो वह जिस-किसी सहज भोज्य की प्रशंसा करता हुआ वह इंगाल दोष से दूषित होता प्राप्त भोजन से भी उदरपूर्ति कर लेता है। है। वह गृद्धि और अधृति के कारण गच्छ से अपक्रमण कर महिष को वंशकरील जैसे सुकुमार द्रव्य प्रिय हैं। लेता है, माया का आचरण करता है, सरस भोजन में लुब्ध उनके न मिलने पर वह अन्य द्रव्य नहीं खाता है। यदि खाता होकर एषणासमिति में स्खलना करता है।
भी है तो उससे पुष्ट नहीं होता है। आर्यमंगु-आर्यसमुद्र-बहुश्रुत आचार्य आर्यमंगु सपरिवार मथुरा घोड़ा काला चना, मूंग आदि मधुर द्रव्य तथा बैल में आये। वे कालांतर में रसगृद्धि के कारण अवसन्न हो गए, अर्जुन, ग्रन्थिपर्ण आदि सुगंधित द्रव्य खाना चाहता है। मृत्यु को प्राप्त कर भवनवासी देव के रूप में उत्पन्न हुए और
इंगिनीमरण-प्रशस्त मरण का एक प्रकार । द्र अनशन तत्काल साधुओं को प्रतिबोध देने के लिए अपने ही शव में प्रविष्ट होकर जीभ निकालने लगे। पूछने पर कहा-मैं आर्यमंगु
इन्द्रिय-चेतना के विकास का प्राथमिक स्तर । प्रतिनियत हूं। इतना कहकर साधु-श्रावकों को रसगृद्धि से होने वाले
और वर्तमान अर्थ को ग्रहण करने वाली चेतना। दष्परिणामों की अवगति देकर लौट गए।
१. इन्द्रियावरण-ज्ञानावरण के भेद आर्यसमुद्र रसगृद्धि से भयभीत थे, अनासक्त थे, अतः २. इन्द्रियावरण-विज्ञानावरण का विषय विभाग सरस और अरस को एक साथ मिलाकर खाते थे।
३. इन्द्रियावरण होने पर भी विज्ञान अनावृत ० आहार-विधि
* इन्द्रियनिश्रित मतिज्ञान
द्र ज्ञान * इन्द्रियविजय का अभ्यास
द्र जिनकल्प तम्हा विधीए भुंजे, दिण्णम्मि गुरूण सेस रातिणितो।
* इन्द्रियप्रतिसंलीनता
द्र प्रतिमा भुयति करंबेऊणं, एवं समता तु सव्वेसिं॥
* दृष्टिराग : ब्रह्मचर्य का विघ्न
द्र ब्रह्मचर्य (निभा १११९)
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