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________________ आगम विषय कोश-२ १६९ कल्पस्थिति प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शिष्यों के लिए दस कल्प। पढमग भंगे वज्जो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। अवस्थित-अनिवार्य होते हैं सेसेसु होतऽपिंडो, जहिँ दोसा ते विवजंति॥ १. अचेल ६. व्रत असणाईआ चउरो, वत्थे पादे य कंबले चेव। २. औद्देशिकवर्जन ७. ज्येष्ठ पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ॥ ३. शय्यातरपिण्डवर्जन ८. प्रतिक्रमण (बृभा ६३८२-६३८४) ४. राजपिण्डपरिहार ९. मासकल्प राजा के चार प्रकार हैं-१. मुदित और मूर्धाभिषिक्त ५. कृतिकर्म १०. पर्युषणाकल्प २. मुदित है, मूर्धाभिषिक्त नहीं ३. मूर्धाभिषिक्त है, मुदित ० अचेल नहीं ४. न मुदित, न मूर्धाभिषिक्त। दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य। मुदित का अर्थ है योनिशुद्ध (जिसके माता-पिता भी तित्थगर असंतचेला, संताचेला भवे सेसा॥ राजवंशीय हैं)। मूर्धा-अभिषिक्त का अर्थ है-मुकुटबद्ध राजा के द्वारा अथवा पट्टबद्ध प्रजा के द्वारा जिसका अभिषेक (बृभा ६३६५) अचेल के दो प्रकार हैं-सद् अचेल और असद् अचेल। किया गया है। अथवा नप भरत की तरह जो स्वयं अभिषिक्त तीर्थंकर असद् अचेल होते हैं। (श्रमण महावीर दीक्षा के समय । है, वह मूर्धाभिषिक्त हैं। इनमें प्रथम भंगवर्ती राजा के आहार को राजपिण्ड कहा देवदूष्यधारी थे, तेरह महीनों के पश्चात् उस वस्त्र को छोड़कर गया है। वह सदा वर्जनीय है। शेष भंगवर्ती पिंड राजपिण्ड अचेलक हो गए।) शेष सभी जिनकल्पिक आदि मुनि सद्अचेल होते हैं। क्योंकि वे रजोहरण, मखवस्त्रिका आदि रखते हैं। __नहीं है, किन्तु दोष की संभावना हो तो वह भी वर्जनीय है। * सचेल-अचेल..... द्र श्रीआको १ शासनभेद राजपिण्ड के आठ प्रकार हैं-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादप्रोञ्छन (रजोहरण)। ० औद्देशिक वर्जन जो मुद्धा अभिसित्तो, पंचहि सहिओ पधुंजते रज्जं। संघस्सोह विभाए, समणा-समणीण कुल गणे संघे। तस्स तु पिंडो वज्जो, तव्विवरीयम्मि भयणा तु॥ कडमिह ठिते ण कप्पति, अद्वितकप्पे जमुद्दिस्स॥ मुद्धं परं प्रधानमाद्यमित्यर्थः, तस्स आदिराइणा (बृभा ६३७६) अभिसित्तोसेणावइ-अमच्च-पुरोहिय-सेट्ठि-सत्थवाहजो आहार श्रमणसंघ या श्रमणीसंघ, कल या गण के सहिओ रज्जं भुंजति। (निभा २४९७ चू) लिए बनाया गया है, वह आहार स्थितकल्प वाले प्रथम और जो राजा द्वारा अभिषिक्त है, सेनापति, अमात्य, अन्तिम तीर्थंकर के किसी भी साधु के लिए कल्पनीय नहीं पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित राज्य का उपभोग है। अस्थितकल्प में जिस मुनि के उद्देश्य से आहार बनाया करता है, उसका पिण्ड राजपिण्ड है । वह वर्जनीय है। गया है, वह मुनि उसे नहीं ले सकता, शेष मुनियों के लिए शेष राजपिण्ड का वर्जन वैकल्पिक है-सदोष हो तो वह कल्पनीय है। वर्ण्य है, अन्यथा नहीं। * ग्राह्य-अग्राह्य आधाकर्म द्रपिण्डैषणा ० कृतिकर्म ० शय्यातरपिंड वर्जन कितिकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं। शय्यातरपिंड किसी भी तीर्थंकर द्वारा किसी भी स्थिति समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं ॥ में अनुज्ञात नहीं है। द्र शय्यातर (बृभा ६३९८) ० राजा और राजपिण्ड के प्रकार कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान तथा वन्दन । साधुमुइए मुद्धभिसित्ते, मुतितो जो होइ जोणिसुद्धो उ। साध्वियों परस्पर रत्नाधिक के क्रम से वन्दना और अभ्युत्थान अभिसित्तो व परेहि, सतं व भरहो जहा राया॥ करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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