SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय ५०४ आगम विषय कोश-२ ४. अनुवीचिभाषी-जो प्रत्यक्ष में हित-मित बोलता है, परोक्ष में ३. कार्यहेतुक-कार्य की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। अपभाषण नहीं करता तथा वैसा अवसर देखता है, जिसमें कथित तीर्थंकरों ने इहलोक और परलोक की आशंसा से मुक्त विनय का वचन सफल होता है। जिनमें प्रभूत अक्षर हैं, जो देशोचित और प्रतिपादन किया है, फिर कार्यहेतुक विनय क्यों? आचार्य कहते कालोचित नहीं हैं, ऐसे निरुपकारी वचनों को अधीन व्यक्ति भी हैं-मोक्षार्थी और कार्यहेतुक विनय में परस्पर विरोध नहीं है सुनना नहीं चाहता, प्रमाणस्थ (मान्य) पुरुष की तो बात ही क्या? क्योंकि उनकी प्रवृत्ति मोक्ष की ही अंगभूत है।। इसलिए पहले बुद्धि से पर्यालोचन करना चाहिये, फिर बोलना ४. कृतप्रतिकृति-कृत उपकार के प्रति अनुकूल वर्तन करनाचाहिए। आचार्य ने कहा आचार्य ने मुझे ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लाभ से उपकृत किया है शिष्य! तेरी वाणी बुद्धि का वैसे अन्वेषण-अनुगमन करे, इसलिए मुझे उनका विनय करना चाहिए। यद्यपि मुनि सारे कार्य जैसे अंधा आदमी अपने नेता का अनुगमन करता है। किसी वस्त की प्राप्ति के संकल्प से मक्त होकर निर्जरा के लिए ० मन विनय-यह संक्षेप में दो प्रकार का है-अकुशल मन का करता है परन्तु कहीं-कहीं कतप्रतिकति की बद्धि से भी प्रवत्ति निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति। . करता है, वह भी विहित है। ० उपचार विनय के प्रकार ५. आर्तगवेषणा-आर्त्त-अनार्त्त मुनि के लिए द्रव्य आदि की अब्भासवत्ति छंदाणवत्तिया कज्जपडिकिती चेव। गवेषणा करना। उसके चार विकल्प हैंअत्तगवेसण कालण्णुया य सव्वाणुलोमं च॥ ० द्रव्य आपद्-दुर्लभ द्रव्य की संप्राप्ति का प्रयत्न करना। गुरुणो य लाभकंखी, अब्भासे वट्टते सया साध। ० क्षेत्र आपद्-कांतार में फंसे मुनि के निस्तारण का प्रयत्न करना। आगार-इंगिएहिं, संदिट्टो वत्ति काऊणं॥ ० काल आपद्-दुर्भिक्ष आदि में मुनियों की सेवा करना। कालसभावाणुमता, आहारुवही उवस्सया चेव। ० भाव आपद्-गाढ ग्लान मुनि की तितिक्षा के साथ और अनार्त्त नाउं ववहरति तहा, छंदं अणुवत्तमाणो उ॥ मुनि की यथाशक्ति सेवा करना। इह-परलोगासंसविमुक्कं कामं वयंति विणयं तु। ६. कालज्ञता-आचार्य आदि के अभिप्राय को समझकर कालक्षेप मोक्खाहिगारिएसुं, अविरुद्धो सो दुपक्खे वि॥ किए बिना उन्हें आहार आदि प्रदान करना। एमेव य अनिदाणं, वेयावच्चं तु होति कायव्वं। ७. सर्वानुलोमता-गुरु के सामाचारी-प्ररूपण तथा बहुविध निर्देशों कयपडिकिती वि जुज्जति, न कुणति सव्वत्थ तं जइ वि॥ को सुनकर 'यह ऐसा ही है', 'यह ठीक है'-ऐसा कहना। दव्वावदिमादीसुं, अत्तमणत्ते व गवेसणं कुणति। से भिक्खू..."आहारातिणियं दूइज्जमाणे अंतरा से आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्टओ पाडिपहिया उवागच्छेज्जा। तेणं पाडिपहिया एवं वदेज्जासामायारिपरूवण, निईसे चव बहुविहे गुरुणा। आउसंतो! समणा! के तुब्भे? कओ वा एह ? कहिं वा एमेव त्ति तध त्ति य, सव्वत्थऽ एसा॥ गच्छिहिह? जे तत्थ सव्वरातिणिए से भासेज्ज वा, वियागरेज्ज (व्यभा ७८-८४) वा। रातिणियस्स भासमाणस्स वा, वियागरेमाणस्स वा णो उपचार विनय के सात प्रकार हैं अंतराभासं भासेज्जा"॥ (आचूला ३/५३) १. अभ्यासवर्तिता-परमार्थ लाभ का आकांक्षी शिष्य गुरु के यथारात्निक क्रम से-रत्नाधिक के साथ परिव्रजन करते आकार और इंगित से उनके अभिप्राय को जानकर अथवा गुरु द्वारा हुए भिक्षु अथवा भिक्षुणी के मार्ग में प्रातिपथिक आ जाएं, वे इस संदिष्ट कार्य को करने के लिए सदा गुरु के समीप रहे। प्रकार पूछे-आयुष्मन्तो ! श्रमणो! आप कौन हैं ? कहां से आये २. छंदोनुवर्तिता-अमुक आहार, उपधि और उपाश्रय अमुक काल हैं ? कहां जायेंगे? जो उनमें सर्वरानिक (ज्येष्ठ) हो, वह में गुरु की प्रकृति के अनुकूल है-यह जानकर गुरु के अभिप्राय का बोले, उत्तर दे। भाषण या व्याकरण करते हुए रात्निक के बीच में अनुवर्तन करते हुए उसी रूप में उन वस्तुओं का व्यवहार करना। कोई न बोले। . .-- - करो विपाआ॥ अगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy