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________________ आगम विषय कोश - २ सूत्रतोऽधीतं न पुनरर्थतः श्रुत्वा सम्यगधिगतमिति बहुश्रुतस्यागीतार्थत्वम् । (बृभा ७०३, ७०८ की वृ) जिसने आचारप्रकल्प का अध्ययन नहीं किया हो या अध्ययन कर भूल गया हो, वह अबहुश्रुत है। जिसने छेदसूत्र को अर्थ सहित ग्रहण न किया हो या ग्रहण कर भूल गया हो, वह अगीतार्थ है । बहुश्रुत - गीतार्थ के सन्दर्भ में चार विकल्प हैं १. अबहुश्रुत - अगीतार्थ २. अबहुश्रुत - गीतार्थ ३. बहुश्रुत - अगीतार्थ ४. बहुश्रुत - गीतार्थ प्रमाद से सूत्र विस्मृत हो गया किन्तु अर्थ याद है, अथवा जो आज्ञा, धारणा आदि का मात्र व्यवहार करता है, यह अबहुश्रुत की गीतार्थता है। जिसने आचारप्रकल्प का अध्ययन सूत्रतः किया हो, अर्थतः सुनकर सम्यग् ग्रहण न किया हो, यह बहुश्रुत की अगीतार्थता है । ४. गीतार्थ कालज्ञ और उपायज्ञ सुहसाहगं पि कज्जं, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नाय देस- काले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ नक्खेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्ठितो रुक्खो । दुच्छेज्जो वडुंतो, सो च्च्यि वत्थुस्स भेदाय ॥ जो य अणुवायछिन्नो, तस्सइ मूलाइँ वत्थुभेदाय । अहिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ भेदाय ॥ संपत्ती य विपत्ती, य होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प । अणुवात विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ॥ इय दोसा उ अगीए, गीयम्मि उ कालहीणकारिम्मि । गीयत्थस्स गुणा पुण, होंति इमे कालकारिस्स ॥ आयं कारण गाढं, वत्थं जुत्तं ससत्ति जयणं च । सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाइ ॥ आयरियाई वत्थं, तेसिं चिय जुत्त होइ जं जोग्गं । गीय परिणामगा वा, वत्थं इयरे पुण अवत्थं ॥ (बृभा ९४४ - ९४६, ९४९ - ९५१, ९५५) जो शैक्ष कार्यविधि से अनजान है, उचित देश और काल में कार्य प्रारंभ नहीं करता, उसका प्रयत्न-विहीन और अनुपाय से संयुक्त सुखसाध्य कार्य भी निष्पन्न नहीं होता । Jain Education International २०१ गीतार्थ प्रासाद में उगे हुए अभिनव वृक्ष का नख से भी छेदन किया जा सकता है। वही वृक्ष जब शाखा प्रशाखाओं से विस्तार पा लेता है तब वह दुश्छेद्य हो जाता है। उसकी वृद्धि प्रासाद का भेदन कर सकती है। जो समूल छिन्न नहीं है, तो उसकी जड़ें भी प्रासाद को भेद सकती है। अभिनव वृक्ष को समूल छिन्न करने पर प्रासाद सुरक्षित रहता है। कर्त्ता के अनुरूप ही कार्य की सिद्धि और असिद्धि होती । कर्त्ता उपायज्ञ नहीं है तो कार्य की सिद्धि नहीं होती । कर्त्ता कालज्ञ और उपायज्ञ है तो कार्य सिद्ध हो जाता है। अगीतार्थ या हीन अधिक काल में कार्य करने वाला गीतार्थ किसी कार्य को निष्पन्न नहीं कर पाता। जो गीतार्थ उचित उपायों से उचित काल में कार्य करता है, उसमें निम्न गुण होते हैं गीतार्थ उत्सर्ग - अपवाद आदि विधियों को जानता है । वह जानता है कि किस कार्य में अधिक लाभ है ? कौन से कार्य की प्रयोजनीयता है ? ग्लानत्व आदि आगाढ़ कारणों में प्रतिसेवना की औचित्य-सीमा क्या है ? वह वस्तु (परिणामक साधु) को जानता है, उसके धृति और संहनन के सामर्थ्य को जानता है, एषणीय द्रव्य ग्रहण की यतना को जानता है तथा कार्य-अकार्य की निष्पत्ति को भी जानता है । वह अलाभ, अकारण, अनागाढ, अवस्तु (अपरिणामक आदि), अयुक्त, अशक्त और अयतना- इन प्रतिपक्षों को भी जाता है। आचार्य आदि प्रधान पुरुष तथा गीतार्थ- परिणामक साधु को वस्तु कहा जाता है। शेष अगीतार्थ, अपरिणामक आदि सब अवस्तु कहलाते हैं । समयज्ञ गीतार्थ इन सब के प्रायोग्य आहार, औषध, स्थान आदि की युक्तता - अयुक्तता को जानता है। ५. गीतार्थ और केवली : प्रज्ञप्ति में तुल्य सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो । चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणतं च लक्खणतो ॥ कामं खलु सव्वन्नू, नाणेणऽहिओ दुवालसंगीतो । पन्नत्तीइ उ तुल्लो, केवलनाणं जओ मूयं ॥ (बृभा ९६२, ९६३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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