Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 701
________________ स्वाध्याय ६५४ आगम विषय कोश-२ कृष्णपक्ष की अष्टमी और कृष्णपक्ष की समाप्ति के दो दिन (चतुर्दशी और अमावस्या), इसी प्रकार शुक्लपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा, द्विसंध्या (प्रातः एवं सायंकाल), अकाल में (वर्षा ऋतु के बिना) बिजली चमकना तथा मेघगर्जन होना, अपने शरीर, अपने संबंधीजन तथा राष्ट्र और राजा के व्यथाकाल में, श्मशान में, यात्राकाल में, वधस्थान में तथा युद्ध के समय, महोत्सव तथा उत्पात (भूकम्प आदि) के दिन तथा जिन दिनों में ब्राह्मण अनध्याय रखते हों, उन दिनों में एवं अपवित्र अवस्था में अध्ययन नहीं करना चाहिए।-सुश्रुत संहिता २/९, १०) १५. स्वाध्यायभूमि : नैषेधिकी, निषद्या, अभिशय्या । ठाणं निसीहियं ति य, एगटुं जत्थ ठाणमेवेगं। चेतेंति निसि दिया वा, सुत्तत्थनिसीहिया सा तु॥ सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उवेंति। अभिवसिउं जत्थ निसिं, उति पातो तई सेज्जा॥ (व्यभा ६३०, ६३१) स्थान और नैषेधिकी एकार्थक हैं। ० स्थान-जहां स्वाध्याय-व्यापृत मुनि ठहरते हैं। ० नैषेधिकी-जहां स्वाध्याय व्यतिरिक्त शेष सब प्रवृत्तियों का निषेध होता है। दिन हो या रात, वह स्थान एकमात्र सूत्र-अर्थ के स्वाध्याय के लिए नियत होता है। साधु रात्रि में भी वहां स्वाध्याय कर वसति में आ जाते हैं। निषद्या-जहां पर स्वाध्याय के निमित्त आकर बैठते हैं। ० अभिशय्या-जिस स्थान में स्वाध्याय कर रात्रि में वहीं रहकरसोकर प्रत्यूषकाल में वसति में आते हैं। १६. नैषेधिकी और अभिशय्या में जाने का हेतु असज्झाइय पाहुणए, संसत्ते वुट्ठिकाय सुयरहसे। पढमचरमे दुगं तू , सेसेसु य होति अभिसेज्जा॥ छेदसुत-विज्जमंता, पाहुड-अविगीत-महिसदिटुंतो। इति दोसा चरमपदे, पढमपदे पोरिसीभंगो॥ (व्यभा ६४५, ६४७) अभिशय्या या नैषेधिकी में जाने के मख्यतः पांच कारण हैं-१. वसति में अस्वाध्यायिक हो। २. बहुत प्राघूर्णक आने से वसति संकीर्ण हो गई हो। ३. वसति प्राणियों से संसक्त हो गई हो। ४. वर्षा के कारण वसति के कई भाग गलित हो रहे हों। ५. श्रुतरहस्य-छेदश्रुत आदि की व्याख्या करनी हो। वसति में निशीथ, व्यवहार आदि छेदश्रुत, विद्यामंत्र और योनिप्राभृत जैसे श्रुतरहस्यों को सुनकर अपरिणामक, अतिपरिणामक आदि शिष्य अनर्थ कर सकते हैं। ० महिष दृष्टांत-एक बार एक आचार्य योनिप्राभृत नामक ग्रन्थ का एक प्रसंग पढ़ा रहे थे-अमुक-अमुक द्रव्यों के संयोग से महिष उत्पन्न हो जाता है। एक उत्प्रव्रजित अगीतार्थ साधु ने छिपकर इस वाचना को सुना, अपने स्थान पर गया, निर्दिष्ट द्रव्यों का संयोजन कर अनेक भैंसे बनाये और गृहस्थ द्वारा उन्हें बिकवा दिया। इस प्रकार श्रुतरहस्यकथन से ये दोष उत्पन्न होते हैं। वसति में अस्वाध्याय होने से सूत्र-अर्थपौरुषी की हानि होती है। अत: अस्वाध्यायिक और श्रुतरहस्य-इन दो कारणों से नैषेधिकी या अभिशय्या में तथा प्राघूर्णक आदि कारणों से अभिशय्या में जाना चाहिए। १७. अभिशय्या में नायक कौन? गंतव्व गणावच्छो, पवत्ति थेरे य गीतभिक्खू य। एतेसिं असतीए, अग्गीते मेरकहणं तु॥ मज्झत्थोऽकंदप्पी, जो दोसे लिहति लेहओ चेव।" .."भयगोरवं च जस्स उ, करेंति सयमुज्जओ जो य॥ पडिलेहणऽसज्झाए, आवस्सग दंड विणय राइत्थी। तेरिच्छ वाणमंतर, पेहा नहवीणि कंदप्पे॥ एतेसु वट्टमाणे, अट्ठिय पडिसेहिए इमा मेरा। हियए करेति दोसे, गुरुय कहिते स ददे सोधिं ॥ (व्यभा ६५०-६५३, ६५७) अभिशय्या में गणावच्छेदक को नायक के रूप में नियुक्त करना चाहिए। गणावच्छेदक के अभाव में प्रवर्तक को, उसके अभाव में स्थविर को, उसके अभाव में गीतार्थ भिक्ष को और वह भी न हो तो अगीतार्थ को भी नियुक्त किया जा सकता है। किन्तु उसे सामाचारी अवश्य बता देनी चाहिए। यथा--आवश्यक, आलोचना आदि में प्रायश्चित्त देना है, पौरुषी आदि प्रत्याख्यान यथोचित रूप से देना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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