Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 729
________________ परिशिष्ट ३ ६८२ आगम विषय कोश-२ पूर्वसंखडि-पश्चात्संखडि यष्टि-वियष्टि - पूर्वसंखडि-पूर्वाह्नकालीन भोज। जन्म-नामकरण, विवाह - यष्टि-शरीर प्रमाण लाठी। आदि के अवसर पर दिया जाने वाला भोज। - वियष्टि-शरीरप्रमाण से चार अंगुल न्यून यष्टि। - पश्चात्संखडि-अपराह्नकालीन भोज । मृतकभोज। लट्ठी आतपमाणा, विलट्ठि चतुरंगुले णूणा ॥ (निभा ७००) पुव्वादिच्चे पुरेसंखडी। मज्झण्हपच्छतो पच्छासंखडी। (निचू यानगृह-यानशाला ३ पृ ७०)जातनामकरणविवाहादिका पुरःसंखडिः तथा .यानगृह-जहां रथ आदि यान रखे जाते हैं। मृतकसंखडि: पश्चात्संखडिः । (आचूलावृ प ३३०) .यानशाला-जहां रथ आदि यानों का निर्माण होता है। प्रतिलेखन-प्रमार्जन 'यानगहाणि' रथादीनि यत्र यानानि तिष्ठन्ति 'यानशाला:' - प्रतिलेखन-वस्त्र, पात्र आदि का निरीक्षण। यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते। (आचूलावृ प ३६६) -प्रमार्जन-स्थान आदि को रजोहरण आदि से साफ करना। यान-वाहन गा पडिलेहणा। मुहपोत्तिय-रयहरण-गोच्छगेहिं पमज्जणा। - यान-हाथी, घोड़ा आदि। अथवा अनुरंगा, रथ आदि। (निचू २ पृ१९३) अथवा शिविका आदि। भक्ति-बहुमान - वाहन-हस्ति, तुरंग, महिष आदि। - भक्ति-अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पादपोंछन, आसनप्रदान- हत्थितरंगादिगमेव जाणं। अहवा रहादिगं सव्वं जाणं भण्णति । ग्रहण द्वारा की जाने वाली सेवा। अहवा सिविगादिगं जाणं भण्णति। (निचू ३ १९९) अणुरंगाई - बहुमान-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों से अनुरंजित जाणे, गुंठाई वाहणे.... । (बृभा ३०७१) व्यक्ति के प्रति रसमय प्रीतिप्रतिबंध। (द्र आचार) रोग-आतंक भित्ति-कुड्य - रोग-कुष्ठ, राजयक्ष्मा आदि। दीर्घकालस्थायी व्याधि। - भित्ति-ईंटों से निर्मित दीवार । -आतंक-कास, श्वास आदि।सद्योघाती व्याधि। (द्रचिकित्सा) - कुड्य-मिट्टी आदि से निर्मित भीत। लांछित-मुद्रित इष्टकादिरचिता भित्तिः, मृत्पिण्डादिनिर्मितं कुड्यम्।। - लांछित-भस्म आदि से चिह्नित। • मुद्रित-गोबर-पानी से मुद्रित। (बृभा ३३११ की वृ) मणि-रत्न छारेण लंछिताई, मुद्दा पुण छाणपाणियं दिण्णं । (बृभा ३३१२) वणिक्-विवणिक् - मणि-चन्द्रकांत आदि। स्थल में उत्पन्न मणि। -वणिक्-दुकान में बैठकर व्यापार करने वाले। - रत्न-इन्द्रनील आदि। जल में उत्पन्न रत्न। -विवणिक्-बिना दुकान घूम-फिरकर व्यापार करने वाले। चन्द्रकान्तादयो मणयः, इन्द्रनीलादीनि रत्नानि। अथवा स्थल ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः। ये पुनरापणेन समुद्भवा मणयः, जलसमुद्भवानि रत्नानि। विनाप्यूर्ध्वस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । (बृभा ११७९ की वृ) (बृभा ३२७८ की ) यश-कीर्त्ति वर्म-कवच - यश-सब दिशाओं में व्याप्त प्रसिद्धि । -वर्म-लघु तनुत्राण विशेष। -कीर्ति-एक दिशाागमिनी प्रसिद्धि।। - कवच-बृहत् तन्त्राण विशेष। यश:-सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिः, सैवैकदिग्गामिनी कीर्तिः । | वर्म-लघुस्तनुत्राणविशेषः... कवचं-महाँस्तनुत्राणविशेषः । (बृभा ४६५५ की वृ) (बृभा २२८३ की वृ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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