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परिशिष्ट ३
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आगम विषय कोश-२
उस्सग्गो पइन्नकहा य, अववातो होति णिच्छयकधा तु। खरपरुष-निष्ठुर वचन ... ववहारणया, पइण्णसुद्धा य णिच्छइगा॥ (निभा २१३१) .खरपरुष-उच्च स्वर से रोषपूर्वक जो कहा जाता है। हिंसक उद्यानी-अवयानी
और मर्मवेधी वचन । आक्रोशयुक्त और उपचार रहित वचन। - उद्यानी-प्रतिस्रोतगामिनी नौका।
• निष्ठुरवचन-असभ्य वचन। - अवयानी-अनुस्रोतगामिनी नौका।
उच्चं सरोसभणियं, हिंसगमम्मवयणं खरं तं तू। नौः या नद्याः प्रतिस्रोतोगामिनी सा उद्यानी, अनुस्रोतोगामिनी । अक्कोस णिरुवचारिं, तमसब्भं णिठुरं होती ॥ (बृभा ५७५१) अवयानी। (व्यभा ११० की वृ)
खिंसा-उपालंभ औदारिक-हिरण्य
-खिंसा-निष्ठुर-स्नेहहीन वचन। - औदारिक-घटित रूप, स्वर्णाभरण आदि।
- उपालंभ-मृदु-स्निग्ध वचन। - हिरण्य-स्वर्ण आदि का अघटित रूप।
खिंसा तु णिप्पिवासा, सपिवासो हो उवालंभो ॥(निभा २६३७) घडियरूवं द्रविणं ओरालियं भण्णति, अघडियरूवं पुण हिरण्णं
गंजशाला-उपस्करणशाला भण्णति। (निचू १ पृ १३१)
- गंजशाला-जहां धान्य का मर्दन किया जाता है। औषध-भैषज
- उपस्करणशाला-रसोईघर। • औषध-हरीतकी आदि।
जत्थ धण्णं दमिज्जति सा गंजसाला, उवक्खडणसाला -भैषज-पेया आदि अथवा त्रिफला आदि।
महाणसो। (निचू २ पृ ४५५) औषधानि हरीतक्यादीनि। भैषजानि पेयादीनि त्रिफलादीनि गणित-विभाजित वा। (बृभा १४८६ की वृ)
• गणित-गिने हुए, पांच व्यक्ति, छह व्यक्ति आदि। कर्म-शिल्प
• विभाजित–'अमुक-अमुक' नामोल्लेखपूर्वक निर्धारित। -कर्म-आचार्य के उपदेश के बिना प्राप्त कला। पंच इति गणिया। अमुगनामेहिं विभातिया। (निचू ३ पृ १५) - शिल्प-आचार्य के उपदेश से प्राप्त कला।
गिरि-मरु विणा आयरिओवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि तं कम्मं इतरं - गिरि-नीचे का वह प्रपात स्थान, जो पर्वत पर आरूढ पुण जं आयरिओवदेसेण कज्जति तं सिप्पं । (निचू ३ १ ४१२) व्यक्ति को दिखाई देता है। कृतयोगी-गीतार्थ
- मरु-जहां से प्रपात दिखाई नहीं देता। - कृतयोगी-श्रुतार्थ के प्रत्युच्चारण में असमर्थ।
जत्थ पवातो दीसति, सो तु गिरी मरु अदिस्समाणो तु। - गीतार्थ-श्रृतार्थ के प्रत्युच्चारण में समर्थ। (द्र गीतार्थ)
(निभा ३८०२) कोष्ठागार-भाण्डागार
ग्लान-बहुरोगी • कोष्ठागार-अन्नभण्डार।
- ग्लान-तत्काल उत्पन्न रोग वाला। - भाण्डागार-हिरण्य-सुवर्ण-भंडार।
- बहुरोगी-पुराना रोगी अथवा अनेक रोगों से अभिभूत। धण्णभायणं कोट्रागारो, भांडागारो हिरण्ण-सुवण्णभायणं। ग्लानः अधुनोत्पन्नरोगः । बहुरोगी नाम चिरकालं बहुभिर्वा
(निचू २ पृ ४५५) रोगैरभिभूतः । (बृभा ५३९९ की वृ) क्षण-उत्सव
घृष्ट-मृष्ट - क्षण-एकदिवसीय पर्व।
• घृष्ट-दूध आदि के झाग से जंघाओं को मसलना। • उत्सव-बहुदिवसीय पर्व।
- मृष्ट-केशों को अथवा शरीर को तेल से चुपड़ना। क्षण:-एकदैवसिकः, उत्सवः-बहुदैवसिकः। घट्ठा फेणादिणा जंघाओ, तेल्लेण केसे सरीरं वा मटेति । (बृभा ३३५५ की वृ)
(निचू ४ पृ७७)
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