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परिशिष्ट २
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आगम विषय कोश-२
वर्षाकाल में इक्कीस मुनि प्रवास करते हों, वह वृषभ बहूण समवातो समोसरणं । ते य दो समोसरणा-एगं वासासु, क्षेत्र है। (उत्कृष्ट वृषभक्षेत्र-द्र शय्या)
बितियं उदुबद्धे। (निचू ३ पृ १२६) समोसरणं णाम मेलओ। 'वसभग्गामो णाम' जत्थ उडुबद्ध आयरिओ अप्पबितिओ सो य सुत्तत्थाणं। अहवा जीवादिणवपदत्थभावाणं अहवा गणावच्छेओ अप्पततिओ एस पंच, एतेणं पमाणेणं जत्थ तिण्णि दव्वखेत्तकालभावा, एए जत्थ समोसढा सव्वे अत्थि त्ति वुत्तं गच्छा परिवसंति एयं वसभखेत्तं । वासासु आयरिओ भवति तं समोसरणं भण्णति। (निचू ४ पृ २५२) अप्पततितो गणावच्छेतितो अप्पचउत्थो एते सत्त, एतेणं सांवत्सरिक-चातुर्मासिक, वर्षारात्रिक। पमाणेणं तिण्णि गच्छा परिवसंति एते इक्कवीसं एयं संवच्छरिउ त्ति वा वासारत्तिउ त्ति वा । (दशाचू प ६९) वसभखेत्तं । (निचू ४ पृ १८९)
साकार-प्रातिहारिक, लौटाने योग्य। वैशाख-योद्धा की मुद्रा विशेष, दोनों एड़ियों को भीतर 'साकारं' प्रातिहारिकम्। (बृभा २९७६ की वृ) की ओर समश्रेणि में रखकर अग्रिम तल को बाहर की सागारिका-जिस वसति में रहने से मैथुनोद्भव ओर रखना।
(कामोत्पत्ति) होता है। जहां स्त्री-पुरुष रहते हैं। 'वइसाहं' पण्हिओ अभितराहुत्तीओ समसेढीए करेति । जत्थ वसहीए ठियाणं मेहुणुब्भवो भवति सा सागारिगा। जत्थ अग्गिमतलो बाहिराहुत्तो। (दशाचू प ४)
इत्थिपुरिसा वसंति सा सागारिका। (निचू ४ पृ १) शुक्लमास-लघुमासिक प्रायश्चित्त।
साणुप्पय-चतुर्थ पौरुषी का चतुर्थ भाग। 'शुक्लमासं' लघुमासमित्यर्थः । (बृभा ४४२६ की वृ) साणुप्पओ णाम चउभागावसेसचरिमाए... । (निचू २ पृ.२९७) शूरहक-कलहकारी आदि को सीख देने में समर्थ। सूक्ष्म-पुष्प। 'शूरहकः' कलहादिकुर्वतां शिक्षां कर्तुं समर्थः।
'सूक्ष्माणि' समयपरिभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते । (बृभा १६८१)
(बुभा ४४१० की वृ) (पृष्फाणिय कसमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि। शैक्ष-अगीतार्थ। नवदीक्षित।
सुमणाणि य सुहुमाणि य, पुप्फाणं होंति एगट्ठा ॥ 'सेहो' अगीयत्थो अभिणवदिक्खिओ वा। (निचू १ पृ १३८)
__-दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३३) संज्ञी-अणुव्रती श्रावक। (द्र संज्ञी)
सेडुग-कपास। संलेहा-तीन कवल।
'सेडुगो' नाम कर्पासः । (बृभा २९९६ की वृ) 'संलेहा' तिण्णि लंबणा। (निचू ३ पृ ७३)
'स्कन्ध-एक स्तम्भ पर प्रतिष्ठित कक्ष। संस्तृत-पर्याप्त आहार-पानी प्राप्त करने वाला। प्रतिदिन स्कन्धः-एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः । (आचूलावृ प ३६२) पर्याप्त अथवा अपर्याप्त खाने वाला।
स्नान-सुगंधित द्रव्यसमूह। भत्तपाणं पज्जतं लभंतो संथडो भण्णति ।..."दिणे-दिणे पज्जत्तं स्नानं-सुगन्धिद्रव्यसमुदयः । (आचूलावृ प ३६३) अपज्जत्तं वा भुंजगे संथडीओ भण्णति । (निचू ३ पृ७४) हर्म्यतल-भूमिगृह।। समवसरण-एकत्र मिलन, बहुतों का समवाय। दो हर्म्यतलं- भूमिगृहम्। (आचूलावृ प ३६२) समवसरण-वर्षाकाल और ऋतुबद्ध काल । आगमग्रन्थ हायनी-शतायु जीवन की एक अवस्था, छठा दशक, -सूत्र और अर्थ का समवाय। जिनमें जीव, अजीव जिसमें बाहुबल और नेत्रज्योति क्षीण हो जाती है। आदि नौ-पदार्थों के अस्तित्व की सिद्धि हो, वे आगम। हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी। (दशाचू प ३)
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