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परिशिष्ट २
विशेष शब्द विमर्श
अकोप्य-अकोपनीय, अदूषणीय।
उद्यान-जहां लोग उद्यानिका (क्रीड़ा/मनोरंजन) के अकोप्पो अदूसणिज्जो। (निचू ३ पृ ५१२)
लिए जाते हैं। जो नगर के समीप होता है। अपरिहारी-अन्यतीर्थिक और गृहस्थ।
जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, जंवा ईसि णगरस्स उवकंठं अपरिहारी ते य अण्णतित्थियगिहत्था। (निचू २ पृ ११८)
ठियं तं उज्जाणं। (निचू २ पृ ४३३) अभिचारक-वशीकरण। उच्चाटन।
उपतल-हस्ततल के सब पार्यों में उन्नत भाग। अभिचारकं णाम वसीकरणं उच्चाटणं। (निचू १ पृ १६३) हत्थतलाओ समंता पासेसु उण्णया उवतलं भण्णति। अभिषेक-उपाध्याय। (द्र संघ)
(निचू २ पृ २६) अव्यक्त-सोलह वर्ष से कम उम्र वाला। अगीतार्थ, ऊर्ध्वदर ( उद्दद्दर)-सुभिक्ष। जिसने निशीथ नहीं पढ़ा हो। जिसकी कांख आदि में उड़ जाव भरिया तं उद्दद्दरं, पर्यायवचनेन सुभिक्षमित्यर्थः । बाल न आए हों।
(निचू ३ पृ८०) सोलसवरिसारेण वयसा अव्वत्तो।... अणधीयणिसीहो अगीयत्थो ऋजुप्राज्ञ-ऋजुता-प्राज्ञता-सम्पन्न। मुनिआचार का सुत्तेण अव्वत्तो। (निचू ३ १ ३०) जाव कक्खादिसु रोमसंभवो यथावत् ग्रहण और पालन करने वाले। (द्र कल्पस्थिति) न भवति, ताव अव्वत्तो, तस्संभवे वत्तो। (निचू ४ ५ २६२) ओज-राग-द्वेषरहित, मध्यस्थ, तुला-सम। अशिव-व्यन्तरकृत उपद्रव। महामारि।
रागदोसविरहितो दोण्ह वि मज्झे वट्टमाणो तुलासमो ओयो 'अशिवं' व्यन्तरकृत उपद्रवः । (बृभा १४५५ की वृ) अशिवं' भण्णति। (निचू ३ पृ५११)यो न रागे न द्वेषे किन्तु तुलादण्डवद् मारिः। (व्यभा १७३८ की वृ)
द्वयोरपि मध्ये प्रवर्तते स ओजा भण्यते । (बृभा ९५८ की वृ) आगन्त्रगार-धर्मशाला।
कल्पस्थित-आचार्यपद का अनुपालक। तत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्ठति तं आगंतागारं ।
आयरियाणं पदाणुपालगो कप्पट्ठितो भण्णति ।(निचू३ पृ६५) (आचूलाचू पृ ३४०)
कल्याणक-प्रायश्चित्त स्वरूप दिया जाने वाला आदेशन-लोहकार आदि की शाला।
तपविशेष। (द्र कल्याणक) 'आदेशनानि' लोहकारादिशालाः । (आचूलावृ प ३६६) कामजल-स्नानपीठ। आलयगुण-प्रतिलेखना आदि बाह्य क्रियाएं। उपशमगुण। 'कामजलं' स्नानपीठम्। (आचूलावृ प ३९७) आलयगुणेहिं-बहिश्चेष्टाभिः प्रतिलेखनादिभिरुपशमगुणेन च। कृतयोगी-गीतार्थ।
(बृभा ३९८ वृ) 'कडजोगि' त्ति गीयत्थो। (निचू ३ पृ ५१२) उत्तिंग-छिद्र । तृणाग्र पर स्थित जलबिन्दु।
खुलक्षेत्र-मंद भिक्षा वाला अथवा घृत आदि उत्तिंगं णाम छिदं । (निचू ४ पृ २०९) उत्तिंगस्तृणाग्रउदक- उपग्रहकारी द्रव्यों की अप्राप्ति वाला क्षेत्र। बिन्दुः। (आचूलावृ प ३२२)
खलखेत्तं णाम मंदभिक्खं जत्थ वा घयादि उवग्गहदव्वं न उभ्रामकभिक्षाचर्या-गांव केबाहरी भाग में भिक्षाटन करना। लब्भति। (निचू ४ पृ ३००) बहिर्गामेषु भिक्षार्थं यत् पर्यटनं सा उद्भ्रामकभिक्षाचर्या। गणी-आचार्य-उपाध्याय।
(बुभा १२५६ की वृ) गणी विविध आचार्य उपाध्यायश्च। (व्यभा ३६३४ की व)
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