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स्थापनाकुल
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आगम विषय कोश-;
साधु सब साधुओं को आमन्त्रित करता है-आर्यो! आओ, अब आचार्य स्थापनाकलों का प्रवर्तन करेंगे। सब साधु गरु के पास आते हैं, तब आचार्य क्षेत्र-प्रत्युपेक्षकों से पूछते हैं-बोलो, हमें किन कुलों में प्रवेश करना है और किन कुलों में नहीं? यदि आचार्य इन कुलों के बारे में नहीं पूछते हैं अथवा पूछने पर प्रत्युपेक्षक उत्तर नहीं देते हैं तो दोनों ही दोषी हैं।
आचार्य क्षेत्र-प्रत्युपेक्षक द्वारा बताए गए अभिगृहीतमिथ्यात्वी, मामाक और अप्रीतिकर कुलों में जाने का सर्वथा निषेध करते हैं। दानश्राद्ध आदि कुलों की स्थापना करते हैं-उन कुलों में गीतार्थ संघाटक ही प्रवेश कर सकता है।
___ वर्षावास और ऋतुबद्ध काल में ग्राम-नगर-निगम में स्थित साधुओं के गच्छ में अतिशायी दानश्रद्धावान् कुलों की स्थापना की जाती है-यह संघीय आचार व्यवस्था है। ५. स्थापनाकुलों में गीतार्थ ही क्यों?
किं कारण चमढणा, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। गच्छम्मि नियय कजं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए॥ साहति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे। एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वर्ल्डति गीयत्था॥
(बृभा १५८४, १६०२) शिष्य ने पूछा-गुरुदेव ! स्थापनाकुलों में एक गीतार्थ संघाटक ही क्यों जा सकता है? आचार्य ने कहा० अन्य संघाटकों के प्रवेश से वे कुल उद्विग्न हो सकते हैं। ० स्निग्ध और मधुर पदार्थों की कमी हो सकती है। ० उद्गम आदि दोषों की शुद्धि नहीं रह सकती। ० संघ में आचार्य, ग्लान और अतिथि के प्रायोग्य द्रव्य की निश्चित अपेक्षा होती है, वह पूर्ण नहीं हो सकती।
प्रियधर्मा गीतार्थ साधु गृहस्थ को म्रक्षित, निक्षिप्त आदि एषणा के दोषों का बोध देता है तथा जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के अभिग्रहों का अवबोध कराता है। इस विधि से आहार ग्रहण करने से गृहस्थ की श्रद्धा बढ़ती है और गीतार्थ के द्रव्य की वृद्धि होती है। ६. आहार-ग्रहण की सामाचारी
संचइयमसंचइयं, नाऊण असंचयं तु गिण्हंति। संचइयं पण कज्जे, निब्बंधे चेव संतरियं॥
दव्वप्पमाण गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य। संविग्ग एगठाणे. अणेगसाहस पन्नरस॥
(बृभा १६०९, १६११) ___ आहार-प्रायोग्य द्रव्य के दो प्रकार हैंसंचयिक-घृत, गुड़ आदि और असंचयिक-दुग्ध, दधि, आदि।
गीतार्थ मुनि स्थापनाकुलों में असञ्चयिक द्रव्य पर्याप्त जानकर ग्रहण करते हैं। किन्तु सञ्चयिक द्रव्य ग्लान आदि प्रयोजनों से ग्रहण करते हैं। गृहस्थ का अत्यन्त आग्रह होने पर अग्लान के लिए सान्तरित ग्रहण करते हैं।
अमुक स्थापनाकुल की रसवती में शालि, मूंग आदि कितने प्रमाण में पकाये जाते हैं? गिनने योग्य घृतपल आदि का, लवणसंस्कृत व्यंजन और मिर्च, जीरक आदि युक्त स्फोटित द्रव्यों का प्रमाण कितना है? आहार का समय कौन-सा है?-इन सबको जानकर एकं संविग्न संघाटक उस कुल में प्रवेश करता है। अनेक संघाटक प्रविष्ट होने से आधाकर्म आदि पन्द्रह उदगमदोषों की संभावन रहती है (अध्यवपरक का मिश्रजात में अन्तर्भाव होने से उदगम दोष पन्द्रह हैं)। ७. अनेक गच्छों के साथ सामाचारी
एगो व होज्ज गच्छो, दोन्नि व तिन्नि वठवणा असंविग्गे" संविग्गमणुन्नाए, अइंति अहवा कुले विरिंचंति। अन्नाउंछ व सहू, एमेव य संजईवग्गे॥ एवं तु अन्नसंभोइआण संभोइआण ते चेव। जाणित्ता निब्बंधं, वत्थव्वेणं स उ पमाणं ॥
__ (बृभा १६१५-१६१७) विवक्षित क्षेत्र में एक, दो या तीन गच्छ हो सकते हैं। जहां अनेक गच्छ हों, वहां श्राद्धकलों में यदि असंविग्न जाते हैं तो उन कुलों की स्थापना कर मुनि उनमें प्रवेश न करें।
उस क्षेत्र में पूर्वस्थित साधु असाम्भोजिक संविग्न हों तो आगंतुक संविग्न साधु उनकी अनुज्ञा प्राप्त होने पर स्थापनाकुलों में प्रवेश करें। वास्तव्य मुनि अज्ञात उंछ की गवेषणा करें। यदि वे असमर्थ हों, तो उन कुलों का विभाग करें। यदि आगंतक मनि सहिष्णु-समर्थ शरीर वाले हों तो अज्ञात उंछ की गवेषणा करें। यही विधि साध्वीवर्ग के लिए है।
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