Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 692
________________ आगम विषय कोश-२ स्थापनाकुल आचार्य, बाल, वृद्ध, तपस्वी, ग्लान, महोदर (बहुभोजी) और ० यदि क्षपक स्थापनाकुलों के लिए नियुक्त है और वह गुरु के शैक्ष-ये सब परित्यक्त (उपेक्षित) होते हैं। लिए प्रायोग्य आहार ग्रहण करता है, स्वयं के लिए नहीं, तो स्वयं गच्छ महानुभाग है-बाल, वृद्ध, ग्लान आदि सबका परितप्त होता है। अपने लिए ग्रहण करता है, गुरु के लिए नहीं, उपकारक है। जो स्थापनाकुलों में प्रवेश नहीं करता, वह गच्छ पर तो गुरु को हानि होती है। अनुकम्पा करता है तथा उद्गमदोषों से बच जाता है। ० क्रोधी व्यक्ति नहीं देने पर क्रोध में आकर कहता है-ऐसा तुम ० भिक्षानयन के अनह क्या देते हो, जिससे तुम्हें गर्व है कि मैं ही देता हूं। इस प्रकार के दुर्वचन से गृहस्थ को विपरिणत कर देता है। अलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोह-माण-माय-लोहिल्लं। ० अभिमानी साधु को अल्प आहार दिया जाता है अथवा गृहस्थ कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा॥ उसको देखकर खड़ा नहीं होता है या सर्वथा नहीं देता है, तो ता अच्छइ जा फिडिओ, सइकालो अलस-सोविरे दोसा" अभिमानी पुन: उस घर में प्रवेश ही नहीं करता है। अप्पत्ते वि अलंभो, हाणी ओसक्कणा य अइभद्दे। ० यदि वह मायावी है तो प्रायोग्य आहार उपाश्रय के बाहर खाकर अणहिंडंतो य चिरं, न लहइ जं किंचि वाऽऽणेई॥ प्रान्त आहार गुरु के पास ले जाता है। अथवा प्रान्त आहार से गिण्हामि अप्पणो ता, पज्जत्तं तो गुरूण घिच्छामि।... स्निग्ध-मधुर आहार को आच्छादित कर देता है। परिताविज्जइ खमओ, अह गिण्हइ अप्पणो इयरहाणी। ० यदि लोभी व्यक्ति स्थापना कुल के लिए नियुक्त है तो वह दूध अविदिन्ने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुमं देसि॥ आदि मांग कर ले लेता है। अथवा गृहस्थ द्वारा अत्यन्त भावना से ऊणाणमदिन्ने. थद्धो न य गच्छए पुणो जं च। लेने पर वह उसे रोकता नहीं है। माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणो छाए॥ ० कुतूहली मार्ग में नाटक आदि को देखता हुआ आहार के समय ओभासइ खीराई, दिज्जंते वा न वारई लुद्धो।..... भासइ खाराइ, दिजत वा सवार लुद्धा को अतिक्रान्त कर देता है। नडमाई पिच्छंतो, ता अच्छइ जाव फिट्टई वेला। जो सत्र और अर्थ में प्रतिबद्ध है, वह गुरु की वाचना के लोभ के सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्क-ऽहिसक्कमाईया॥ कारण कालवेला से पहले या पीछे भिक्षा के लिए जाता है तो (बृभा १५९२, १५९४-१६००) अवष्वष्क और अभिष्वष्क दोष उत्पन्न होते हैं। आलसी, बहुभक्षी, स्वपनशील, क्षपक, क्रोधी, मानी, ४. कुलों को स्थापित करने की विधि मायावी, लोभी, कुतूहली और सूत्र-अर्थ में प्रतिबद्ध-इन दशविध दाणे अभिगम सड्डे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। शिष्यों को आचार्य वैयावृत्त्य में नियुक्त न करे-दोषों की संभावना मामाए अचियत्ते, कुलाइं ठाविंति गीयत्था॥ से स्थापनाकुलों में न भेजे। वे दोष ये हैं कयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयर दोसा। ० आलसी और निद्राशील भिक्षु तब तक बैठा रहता है, जब तक ठवणकुलाण य ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो॥ भिक्षा का समय अतिक्रान्त हो जाता है। वह अकाल में भिक्षा के । गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे। लिए घूमता है, जिससे भिक्षा की उपलब्धि नहीं होती है। प्रायोग्य गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सड्डी॥ भिक्षा के अभाव में आचार्य के स्वास्थ्य की हानि होती है। अत्यन्त (बृभा १५८०, १५८२, १५८३) श्रद्धावान् व्यक्ति वैयावृत्त्य करने वाले को देखकर भिक्षाकाल से गीतार्थ (क्षेत्रप्रत्युपेक्षक) दानश्रद्धावान्, श्रावक, सम्यक्त्वी, पहले ही भिक्षा निष्पादित अथवा स्थापित कर देता है। मिथ्यात्वी, मामाक (मेरे घर मत आओ) और अप्रीतिकर कुलों को ० स्थापनाकुलों (वैयावृत्त्य) के लिए यदि बहुभक्षी नियुक्त है, तो स्थापित करते हैं-ये कुल गीतार्थसंघाटक के प्रवेशयोग्य हैं, ये कुल वह पहले अपने प्रायोग्य पर्याप्त भिक्षा को ग्रहण करके फिर गुरु सर्वथा प्रवेशयोग्य नहीं हैं-इस रूप में व्यवस्थापित करते हैं। के लिए ग्रहण करता है। कायोत्सर्ग (आवश्यक) सम्पन्न करने के पश्चात् गीतार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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