Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 694
________________ आगम विषय कोश - २ यदि वास्तव्य साधु साम्भोजिक हैं, तब वे स्वयं ही आगंतुकों के लिए स्थापनाकुलों से आहार- पानी लाकर दें । गृहस्थ का प्राघूर्ण साधु के लिए आग्रह हो, तब वास्तव्य साधु आगंतुक संघाटक को साथ लेकर जाए। आगंतुक साधु वहां यह न कहे कि अहो! कितना प्रचुर द्रव्य दिया जाता है? कितना द्रव्य ग्राह्य या कल्पनीय है - इसमें वास्तव्य साधु ही प्रमाण है । स्वप्न- -अर्द्ध सुप्तावस्था में जागृत मन की प्रवृत्ति विशेष । पूर्व दृष्ट, श्रुत अथवा अनुभूत वस्तु या विचार की सुप्तजागृत अवस्था में दृश्यरूप में अभिव्यक्ति । १. स्वप्न उत्पाद के प्रकार २. स्वप्न : मन का विषय * स्वप्नदर्शन : चित्तसमाधि- हेतु द्र चित्तसमाधिस्थान * प्रश्नप्रश्न (स्वप्न में विद्या का अवतरण ) द्र मंत्रविद्या ३. स्वप्नभावना अध्ययन का प्रतिपाद्य ४. किसकी माता ? कितने स्वप्न ? १. स्वप्न उत्पाद के प्रकार आहातच्च पदाणे, चिंता विवरीय तह य अव्वत्तो । पंचविहो खलु सुमिणो, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ पाएण अहातच्चं, सुमिणं पासंति संवुडा समणा । इयरे गिही त भतिता, जं दिट्टं तं तहातच्चं ॥ पयतो पुण संकलिता, चिंता तण्हाइ तस्स दगपाणं । मेज्झस्स दंसणं खलु, अमेज्झ मेज्झं य विवरीतं ॥ सरति पडिबुद्धो, जं ण वि भावेति पस्समाणो वि। एसो खलु अव्वत्तो, पंचसु विसएसु णायव्वो ॥ (निभा ४३००-४३०३) स्वप्न उत्पाद के पांच प्रकार हैं १. यथातत्त्व - जो स्वप्न जिस रूप में देखा गया है, उसी रूप में घटित होता है, वह यथातत्त्व स्वप्न है। ऐसा स्वप्न प्रायः संवृत अनगार ही देखते हैं। पार्श्वस्थ और गृहस्थ यथातत्त्व स्वप्न देख भी सकते हैं, नहीं भी देखते । २. प्रतान – इसमें शृंखलावत् स्वप्न-परम्परा चलती है। ३. चिंता - जागृत अवस्था में जो चिंतन किया, उसे स्वप्न में ६४७ Jain Education International स्वप्न देखना । यथा - प्यास में पानी पीने का चिंतन किया, स्वप्न में पानी पीते हुए देखा। ४. विपरीत - इसमें दृष्ट स्वप्न का विपरीत फल मिलता है। शुचि-दर्शन का फलित अशुचि पदार्थ की प्राप्ति और अशुचिदर्शन का फलित होता है- शुचि पदार्थ की प्राप्ति । ५. अव्यक्त - जागने के पश्चात् जो स्वप्न याद नहीं रहता है। अथवा याद रहते हुए भी जिसका अर्थ ज्ञात नहीं होता है, वह अव्यक्त स्वप्न है। यह पांचों इन्द्रियविषयों में संभव है । अथवा इन्द्रियविषय प्रायः सब स्वप्नों के विषय बनते हैं। (स्वप्न दर्शन का अर्थ है - स्वप्नस्य - स्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्य दर्शनं - अनुभवनम् - शयनक्रियाअनुगत अर्थविकल्प का अनुभव करना। इसके पांच प्रकार हैं १. यथातत्त्व - इसके दो भेद हैं- १. दृष्टार्थअविसंवादी - किसी ने स्वप्न में देखा कि किसी ने मुझे हाथ में फल दिया है। जागृत अवस्था में उसी रूप में हाथ में फल देखता हैं । २. फलअविसंवादी - कोई स्वप्न में अपने को वृषभ, हाथी आदि पर आरूढ़ देखता है। वह जागने पर कालांतर में सम्पदा प्राप्त करता विशिष्ट संवृतत्वयुक्त सर्वव्रती अनगार चैतसिक निर्मलता के कारण यथार्थ स्वप्न देखता है और देवता के अनुग्रह के कारण भी सत्य स्वप्नदर्शन होता है । संवृतासंवृत और असंवृत व्यक्ति का स्वप्नदर्शन यथार्थ भी हो सकता है, अन्यथा भी हो सकता है। २. प्रतान - विस्तृत रूप में होने वाला स्वप्नदर्शन। यह यथार्थ और अयथार्थ - दोनों प्रकार का होता है। ३. चिन्तास्वप्न - जागृत अवस्था में किये गए अर्थचिन्तन का संदर्शनात्मक स्वप्न । ४. तद्विपरीत- इसमें जैसी वस्तु देखी जाती है, जागने पर उसके विपरीत अर्थ की प्राप्ति होती है। जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को अशुचि से लिप्त देखता है, जागने पर शुचि पदार्थ प्राप्त करता है। अन्य अभिमत के अनुसार तद्विपरीत स्वप्न वह है, जिसमें स्वरूप से मृत्तिकास्थल आरूढ व्यक्ति स्वप्न में अपने आपको अश्वारूढ देखता है। ५. अव्यक्तदर्शन - जिसमें स्वप्नार्थ का अस्पष्ट अनुभव हो । सुप्त व्यक्ति और जागृत व्यक्ति स्वप्न नहीं देखता, सुप्तजागृत (अर्धजागृत) व्यक्ति स्वप्न देखता है। यह सुप्तता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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