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आगम विषय कोश - २
अप्पणी असझाइए सज्झायं करेत्तए । कप्पइ हं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए ॥ (व्य ७/१७, १९) साधु अथवा साध्वी अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय नहीं कर सकते। वे अपने शरीरसंबंधी अस्वाध्यायिक होने पर स्वाध्याय नहीं कर सकते, परस्पर वाचना दे सकते हैं ।
४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय से हानि
उम्मायं च लभेज्जा, रोगायकं च पाउणे दीहं । तित्थकर भासियाओ, खिप्पं धम्माओ भंसेज्जा ॥ इह लोए फलमेयं, परलोए फलं न देंति विज्जाओ । आसायणा सुयस्स य, कुव्वति दीहं तु संसारं ॥ (निभा ६१७७, ६१७८)
अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने वाला उन्मत्त हो सकता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक से ग्रस्त हो सकता है, अर्हत्भाषित धर्म से शीघ्र भ्रष्ट हो सकता है - यह इहलौकिक दुष्परिणाम है। ज्ञानाचार की विराधना करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है, जिसके उदय से परलोक में विद्याएं साधने पर भी सिद्ध नहीं होती हैं । श्रुत की आशातना संसार को बढ़ाती है । (अस्वाध्याय में स्वाध्याय से श्रुतज्ञान की अभक्ति, लोकविरुद्ध व्यवहार आदि दोष उत्पन्न होते हैं । — श्रीआको १ अस्वाध्याय) ५. अस्वाध्यायिक - परिज्ञान हेतु कालप्रेक्षा
एसो उ असज्झाओ, तव्वज्जिय झाओ तत्थिमा जतणा । सज्झाइए वि कालं, कुणति अपेहित्तु चउलहुगा ॥ पंचविधमसज्झायस्स, जाणणट्ठाय पेहए कालं ..... (व्यभा ३१५३, ३१५५)
अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय वर्जित है । स्वाध्यायिक में भी यतना— कालप्रतिलेखना किए बिना स्वाध्याय करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। पंचविध अस्वाध्यायिक के परिज्ञान के लिए कालप्रेक्षा अनिवार्य है ।
* कालप्रतिलेखना विधि द्र श्रीआको १ कालविज्ञान ६. अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायकरण के अपवाद बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे । एतेहिं कारणेहिं, जतणाए कप्पती काउं ॥
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स्वाध्याय
यथा स्कन्दके चमरे च प्रत्यासन्ने अनुद्दिष्टमपि स्कन्दकोद्देशं च रात्रौ रात्रौ त्रीन् वारान् दिवसानस्वाध्यायिके ऽपि तदनुग्रहाय कर्षयन्ति । तथा कारणवशेन प्रतिबद्धायां शय्यायां स्थितस्तत्र सागारिकस्य शय्यातरस्य प्रतिचारणाशब्दं श्रुत्वा मा शृणुयात् एनमनिष्टं शब्दमिति कृत्वा यत् कालिकमुत्कालिकं वा परिजितं केवलं स तदस्वाध्यायिकेऽपि पठति । आदिग्रहणेन कदाचित् यथाच्छन्दस्योपाश्रये कारणेन स्थितास्ततो यथामतिविकल्पितां तस्य सामाचारीं मा शृण्वामेति तत्प्रतिघातार्थमस्वाध्यायिके ऽपि स्वाध्यायं कुर्वन्ति इति परिग्रहः । तथा कालगते जागरणनिमित्तं मेघनादादिकमध्ययनमस्वाध्यायिके ऽपि परावर्त्यते । अधुना गृहीतं किमप्यध्ययनं यच्च यस्य समीपे गृहीतं स मरणमुपागतः अन्यत्र च तन्न विद्यते ततो माभूत्तद्व्यवच्छेद इत्यस्वाध्यायिकेऽपि तत्परावर्त्यते । (व्यभा ३२२१ वृ)
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आगाढयोग-वहनकाल में अस्वाध्यायिक में भी यतनापूर्वक स्वाध्याय किया जा सकता है। यथा
• स्कन्दक और चमर के प्रत्यासन्न होने पर उनके अनुग्रह के लिए अनुद्दिष्ट स्कन्दक- उद्देशक का स्वाध्याय रात्रि में तीन बार तथा दिन में अस्वाध्यायिक में भी किया जा सकता है।
• शय्यातर से प्रतिबद्ध वसति में उसके प्रतिचारणा संबंधी शब्द श्रवण से बचने के लिए परिचित कालिक या उत्कालिक श्रुत का अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय किया जा सकता है।
• कारणवश यथाच्छन्द श्रमण के उपाश्रय में स्थित मुनि उसकी स्वच्छंद विकल्पित सामाचारी के श्रवण के प्रतिघात के लिए अस्वाध्याय में स्वाध्याय कर सकता है।
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कोई मुनि कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो रात्रिजागरण के निमित्त मेघनाद आदि अध्ययनों का अस्वाध्यायिक में परावर्तन किया जा सकता है।
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• तत्काल-गृहीत अध्ययन का प्रदाता यदि कालगत हो जाए और वह अध्ययन दुर्लभ हो तो उसकी अव्यवच्छित्ति के लिए अस्वाध्यायिक में भी उसका परावर्तन किया जा सकता है 1 ७. कालिक - उत्कालिक श्रुतस्वाध्याय-काल
जे भिक्खूचाउकालपोरिसिं सज्झायं उवातिणावेति, उवातिणावेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १९/१३)
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