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स्थापनाकुल
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आगम विषय कोश-:
१. स्थापनाकुल : पारिहारिक कुल
जो एक क्षेत्र में जुगुप्सित माने जाते हैं, वे ही अन्य क्षेत्र में ठप्पा कुला ठवणाकुला अभोज्जा इत्यर्थः, साधु- अजुगुप्सित भी हो सकते हैं। यथा-सिंधु में धोबी कुल। ठवणाए वा ठविजंति त्ति ठवणाकुला।(नि ४/२१ की चू)
लोकोत्तर स्थापनाकुल के दो प्रकार हैंजो स्थाप्य-अभोज्य कुल है, वह स्थापनाकुल है। अथवा
१. वसति से सम्बद्ध-उपाश्रय के पास वाले सात घर संबद्ध
कहलाते हैं। वहां से आहार-पानी नहीं लेना चाहिए। गीतार्थ द्वारा स्थापित विशिष्ट कुल स्थापनाकुल है।
२. असम्बद्ध-दानश्रद्धी (यथाभद्र दानरुचि), अणुव्रती सम्यगदृष्टि गुरु-ग्लान-बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि
और अविरतसम्यग्दृष्टि के कुल गीतार्थसंघाटक के प्रवेश के सिवाय कुलानि परिहारिकाण्युच्यन्ते, एकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा । शेष सब साधुओं के लिए स्थाप्य-निषिद्ध हैं क्योंकि इनमें एषणादोषों शेषसङ्घाटकानां परिहारमर्हन्तीति व्युत्पत्तेः। यद्वा परिहारि- की संभावना रहती है। मिथ्यादृष्टिभावित, मामाक (मेरे घर में काणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानीति भावः। श्रमण न आएं-इस भावना से भावित) और अप्रीतिकर (जहां
(बृभा २६९६ की वृ) प्रविष्ट होने पर अप्रीति उत्पन्न हो) कुल सर्वथा स्थाप्यकुल हैं। जहां गुरु, ग्लान, शैक्ष आदि के प्रायोग्य द्रव्य उपलब्ध हो, जो कुल लोक में जुगुप्सित/निंदित हैं, उनका परिहार करने वे कुल पारिहारिक कहलाते हैं। उन कुलों में एक गीतार्थसंघाटक से तीर्थ की वृद्धि होती है, यश बढ़ता है। के अतिरिक्त शेष संघाटकों के प्रवेश का परिहार-निषेध होता है। ३. स्थापनाकुल में प्रवेश का निषेध अथवा जाति आदि से जुगुप्सित कुल पारिहारिक कुल हैं।
जेभिक्खूठवणकुलाइं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय २. स्थापना कुल के प्रकार
पुव्वामेव पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविसति॥आवज्जइ ठवणाकुला तु दुविधा, लोइयलोउत्तरा समासेणं। मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं॥ (नि ४/२१, ११८) इत्तरिय आवकहिया, दुविधा पुण लोइया हुंति॥ जो भिक्षु स्थापनाकुलों की जानकारी, पृच्छा और गवेषणा सूयग-मतग-कुलाइं, इत्तरिया जे य होंति णिज्जूढा।
किए बिना पिंडपात की प्रतिज्ञा से उनमें प्रवेश करता है, वह जे जत्थ जुंगिता खलु, ते होंति आवकहिया तु॥
लघुमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। दुविहा लोउत्तरिया, वसधी संबद्ध एतरा चेव।
अयसो पवयणहाणी, विप्परिणामो तहेव य दुगुंछा। सत्तघरंतर जाव त, वसधीतो वसधिसंबद्धा॥
लोइय-ठवणकलेसं, गहणे आहारमादीणं॥ दाणे अभिगमसड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अचियत्ते य एतरा होंति णायव्वा॥
आयरिय-बालवुड्डा, खमग-गिलाणा महोदरा सेहा।
सव्वे वि परिच्चत्ता, जो ठवण-कुलाइं णिव्विसती॥ .."लोगजढे परिहरता, तित्थ-विवड्डी य वण्णो य॥
गच्छो महाणभागो, सबाल-वडोऽणकंपिओ तेणं। (निभा १६१७-१६२०, १६२२)
उग्गमदोसा य जढा, जो ठवण-कुलाइं परिहरइ॥ स्थापनाकुल के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक स्थापनाकुल के दो प्रकार हैं
(निभा १६२३, १६२४, १६२६) १. इत्वरिक स्थापनाकुल-सूतक और मृतक वाले कुल निर्मूढ
लौकिक स्थापना (परिहार्य/अभोज्य) कुलों में आहार आदि होते हैं-सीमित कालावधि के लिए स्थगित (भोजन आदि के ग्रहण करने से संघ का अपयश होता है, प्रवचन की हानि होती है लिए निषिद्ध) किये जाते हैं (स्थाप्य होते हैं)।
(कोई प्रव्रजित नहीं होता), जो संघ के सम्मुख हैं, वे विमुख हो २. यावत्कथिक स्थापनाकुल-जिस क्षेत्र में जो कल कर्म, शिल्प जाते हैं और भिक्षाग्राही को जुगुप्सित (अस्पृश्य) मानने लगते हैं। और जाति की दृष्टि से जुगप्सित या अभोज्य होते हैं।
लोकोत्तर स्थापनाकुलों में प्रवेश करने वाले मुनि द्वारा
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