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आगम विषय कोश- २
६. निर्धर्मी - जो अनेषणीय पदार्थ ग्रहण करना चाहता है। ७. दुर्लभ भैक्ष- जब भिक्षा दुर्लभ होती है।
- इस
८. आत्मार्थिक - मैं अपनी लब्धि से प्राप्त आहार ही लूंगासंकल्प वाला अकेला जाता है।
९. अमनोज्ञ - जो कलहकारी होने के कारण सबके लिए अप्रिय हो, वह अकेला जाता है।
८. दूर भिक्षाटन के लाभ
एवं उग्गमदोसा, विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । मोहतिगिच्छा य कता, विरियायारो य अणुचिण्णो ॥ (बृभा ५३०१ )
सुदूर भिक्षाटन के पांच लाभ हैं - १. उद्गम आदि दोषों का परिहार । २. प्रचुर भक्त - पान का लाभ । ३. स्वपक्ष वालों के मन में असत्कार का अभाव । ४. (परिश्रम, आतप, वैयावृत्त्य आदि द्वारा सहजतया ) मोह - चिकित्सा । ५. वीर्याचार की परिपालना । o भिक्षाचर्या और स्वाध्याय में उद्यम चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तथेव सज्झाओ । एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥ ..... एत्थ उ उज्जममाणं तं जाणसु तिव्वसंविग्गं ॥ (व्यभा २४८४, २४८५)
चरण (व्रत, श्रमणधर्म आदि) और करण (पिण्ड - विशोधि, समिति आदि) का सार है- भिक्षाचर्या तथा स्वाध्याय । जो इन दोनों में कष्टानुभूति करता है, उसे मंद संविग्न जानो । जो इनमें उद्यम करता है, उसे तीव्र मुमुक्षु जानो ।
९. साध्वियों की आहार-विधि : गणप्रभावना मंडलिठाणस्सऽसती,
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पत्तेय कमढभुंजण, मंडलिथेरी उ परिवेसे ॥ ओगाहिमाइविगई, समभाग करेइ जत्तिया समणी । तासिं पच्चयहेउं, अहिक्खट्टा अकलहो अ॥ निव्वीइय एवइया, व विगइओ लंबणा व एवइया । अण्णगिलायंबिलिया, अज्ज अहं देह अन्नासिं ॥ दण निहुयवासं, सोयपयत्तं अलुद्धयत्तं च । इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ ॥
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स्थविरकल्प
सच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स । जइ बंभं जड़ सोयं, एयासु परं न अन्नासु ॥ बाहिरमलपरिछुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा । धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अवि होज्ज अम्हं पि ॥ यद्यसागारिकं ततो मण्डल्यां समुद्दिशन्ति । अथ मण्डलीभूमिः सागारिकबहुला तत्रौर्णिकं कल्पमधः प्रस्तीर्य तस्योपरि सौत्रिकं तत्राप्यलाबुपात्रकाणि स्थापयित्वा । प्रवर्त्तिनी च पूर्वाभिमुखा धुरि निविशते । तत एका मण्डलीस्थविरा सर्वासामपि परिवेषयेत्, आत्मनोऽपि योग्यमात्मीये कमढके प्रक्षिपेत् । ताश्च समुद्देष्टुमुपविशन्त्य इत्थं ब्रुव..... अद्य ममैतावन्तः 'लम्बना: ' कवला :..... 'अन्नग्लाना' ग्लानंपर्युषितमन्नं मया भोक्तव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहा ।..... प्रवर्त्तिन्या कमढकं क्षुल्लिका निर्लेपयति, शेषास्तु स्वं स्वं कमढकम् । ततः सर्वास्वपि समुद्दिष्टासु मण्डलीस्थविरा समुद्दिशति । (बृभा २०७६ - २०८१ वृ) साध्वियां जहां गृहस्थ न हों, वहां मण्डली में भोजन करें, मण्डलीभूमि गृहस्थबहुल हो तो वहां नीचे ऊनी कल्प, उसके ऊपर सूती कल्प बिछाकर उस पर अलाबुपात्र स्थापित कर प्रत्येक साध्वी कमढक में भोजन करे। प्रवर्तिनी पूर्व की ओर मुंह कर बैठे, तत्पश्चात् मण्डलीस्थविरा सभी को भोजन परोसे और अपने योग्य द्रव्य अपने पात्र में रख ले।
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मण्डलीस्थविरा पक्वान्न, घृत आदि चीजों को, जितनी साध्वियां हैं, उनके अनुपात से समभागों में विभक्त कर परोसती है। इससे तीन प्रयोजन सिद्ध होते हैं
० साध्वियों में स्थविरा के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है।
• सभी को अपना संविभाग प्राप्त होता है ।
• कलह उत्पन्न नहीं होता।
जब साध्वियां आहार के लिए बैठती हैं, तो एक कहती है - आज मुझे विकृति का भोजन नहीं करना है। दूसरी कहती है- मुझे इतनी विकृति से अधिक खाने का त्याग है । कोई कहती है - आज मैं इतने कवल से अधिक नहीं खाऊंगी। कोई कहती है - आज मैंने बासी भोजन करने का अभिग्रह किया है। एक कहती है- आज मुझे आयंबिल तप करना है, अतः यह विकृति आदि किसी अन्य को दें।
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