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आगम विषय कोश-२
६३९
स्थविरकल्प
किसी कारणवश स्थविरकल्पी स्वयं वस्त्र, पात्र, ज्ञान-दान २०. जिन-स्थविर-कल्प : कृतयोगिता, धृति-संहनन आदि के द्वारा शिष्यों का संग्रह-उपग्रह करने में असमर्थ होने पर पुरिसा उक्कोस-मज्झिम, जहण्णया ते चउव्विधा होति। दीक्षार्थी को उपदेश देते हैं कि अमुक गच्छ में संविग्न गीतार्थ कप्पट्ठिता परिणता, कडयोगी चेव तरमाणा।। आचार्य हैं, तुम्हें उनके पास दीक्षा स्वीकार करनी चाहिए।
संघयणे संपण्णा, धितिसंपण्णा य होंति तरमाणा। * दीक्षा के छह प्रस्थान : प्रव्रज्या आदि
द्र दीक्षा सेसेसु होति भयणा, संघयण-धितीए इतरे य॥ ० प्रायश्चित्त, कारण, परिकर्म
पुरिसा तिविहा संघयण, धितिजुत्ता तत्थ होंति उक्कोसा। जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे।
एगतरजुत्ता मज्झा, दोहिं विजुत्ता जहण्णा उ॥ केत्तियमित्तं वोज्झिति, पच्छित्तं दुग्गयरिणी वा॥
उक्कोसगा तु दुविहा, कप्प-पकप्पट्ठिता व होज्जाहि। ....."मनसाऽऽपन्नेऽप्यपराधे नास्ति तपःप्रायश्चित्तं
कप्पट्ठिता तु णियमा, परिणत-कडयोगि-तरमाणा॥ स्थविरकल्पिकानाम्, आलोचनाप्रतिक्रमणप्रायश्चित्ते तु
जे पुण ठिता पकप्पे, परिणत-कडयोगिताइ ते भइता। तत्रापि भवतः"। कारणम"उत्पन्ने द्वितीयपदमप्यासेवन्ते।
तरमाणा पुण णियमा, जेण उ उभएण ते बलिया। तथा निष्कारणे निष्प्रतिकर्मशरीराः। कारणे तु ग्लानमाचार्य
मज्झा य बितिय-ततिया, नियम पकप्पट्टिता तु णायव्वा। वादिनं धर्मकथिकं च प्रतीत्य पादधावनमुखमार्जनशरीर
बितिया परिणत-कडयोगिताए भइता तरे किंचि॥
संघयणेण तु जुत्तो, अदढधिति ण खलु सव्वसो अतरओ। सम्बाधनादिकरणात् सप्रतिकर्माण इति। (बृभा १६५५ वृ)
देहस्सेव तु स गुणो, ण भज्जति जेंण अप्पेण॥ • प्रायश्चित्त-जीव प्रमादबहुल है। उसे अप्रमाद में स्थापित
ततिओ धितिसंपण्णो, परिणय-कडयोगिता विसो भइतो। करना दुष्कर है। चैतसिक चंचलता के कारण वह पग-पग पर
एगे पुण तरमाणं, तमाहु मूलं धिती जम्हा॥ अपराध कर लेता है तो दरिद्र कर्जदार की भांति वह कितने
णामुदया संघयणं, धिती तु मोहस्स उवसमे होति। प्रायश्चित्त रूपी ऋण का वहन करेगा? अतः स्थविरकल्पिकों को
तहवि सती संघयणे, जा होति धिती ण साहीणे॥ मानसिक स्तर पर अपराध होने पर तपप्रायश्चित्त नहीं दिया जाता,
चरिमो परिणत-कडयोगित्ताए भइओ ण सव्वसो अतरो। किन्तु आलोचना एवं प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के द्वारा मानसिक दोषों
रातीभत्त-विवज्जण, पोरिसिमादीहिं जं तरति ।। का शोधन किया जाता है।
(निभा ७७-८६) . कारण-वे महामारी, दुर्भिक्ष आदि कारण उत्पन्न होने पर अपवाद मार्ग का आसेवन भी करते हैं।
पुरुषों के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट , मध्यम, जघन्य। ० परिकर्म-वे निष्कारण परिकर्म नहीं करते। कारण से ग्लान,
इनके चार-चार प्रकार हैं-कल्पस्थित, परिणत, कृतयोगी आचार्य, वादी और धर्मकथिक पादप्रक्षालन, मुखमार्जन,
और तरमाण (समर्थ/अपने लक्ष्य में निश्चित सफल होने वाला)। शरीरसंबाधन आदि परिकर्म करते हैं, अतः वे सप्रतिकर्म हैं।
शरीररचना और मनोबल की क्षमता के आधार पर इनके
चार विकल्प बनते हैं-१. संहननसंपन्न-धुतिसंपन्न २. संहनन१९. सापेक्ष-निरपेक्ष के प्रायश्चित्त में अंतर
संपन्न किन्तु धृतिसंपन्न नहीं ३. धृतिसंपन्न किन्तु संहननसंपन्न .....निरवेक्खाण मणेण वि, पच्छित्तितरेसि उभएणं॥ नहीं ४. न संहननसंपन्न न धृतिसंपन्न।
(व्यभा ४०२३) प्रथम भंगवर्ती पुरुष तरमाण होते हैं, शेष भंगों में सामर्थ्य निरपेक्ष (प्रतिमाप्रतिपन्न, जिनकल्पी आदि) मुनियों को की भजना है। प्रथम भंगवर्ती पुरुष उत्कृष्ट, द्वितीय-तृतीय भंगवर्ती मन से भी अतिचार सेवन करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मध्यम और चतुर्थ भंगवर्ती जघन्य होते हैं।
सापेक्ष (गच्छस्थित) मुनि वाचिक और कायिक दोषसेवन उत्कृष्ट के दो प्रकार हैं-कल्पस्थित (जिनकल्पिक) और करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं।
प्रकल्पस्थित (स्थविरकल्पिक)।
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