Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 685
________________ स्थविरकल्प ६३८ आगम विषय कोश-२ ८. कल्प ९. लिंग १०. लेश्या ११. ध्यान १२. गणना (इन द्वारों में ० कल्प-ये स्थितकल्प और अस्थितकल्प दोनों में होते हैं। अवस्थिति वक्तव्य है) १३. अभिग्रह १४. प्रव्राजना १५. मुण्डापना . वेद-प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा स्त्री, पुरुष और कुत नपुंसक१६. मानसिक अपराध में तप प्रायश्चित्त नहीं। १७. कारण (अपवाद) तीनों वेद हो सकते हैं, पूर्वप्रतिपन्न अवेदी भी हो सकते हैं। १८. प्रतिकर्म (धावन, संबाधन आदि) १९. आहार और विहार .लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना तृतीय पौरुषी में वैकल्पिक। भइया उ दव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेस-धम्मेहिं । ०क्षेत्र, काल, चारित्र"वेद पुव्वपडिवन्नगा पुण, लेसा झाणे अ अन्नयरे ॥ पन्नरसकम्मभूमिसु, खेत्तद्धोसप्पिणीइ तिसु होज्जा। पडिवज्जमाण भइया, एगो व सहस्ससो व उक्कोसा। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणे॥ कोडिसहस्सपुहत्तं जहन्न-उक्कोसपडिवन्ना॥ पढम-बिइएसु पडिवजमाण इयरे उ सव्वचरणेसु। (बृभा १६३९, १६४७) नियमा तित्थे जम्मऽट्ट जहन्ने कोडि उक्कोसे॥ • लिंग-प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा द्रव्य लिंग की पव्वज्जाएँ मुहुत्तो, जहन्नमुक्कोसिया उ देसूणा। भजना है, भावलिंग सदा होता है। आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि॥ ० लेश्या-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा उनमें तीन शभ लेश्याएं होती वेदः स्त्री-पुं-नपुंसकभेदात् त्रिविधोऽप्यमीषां प्रति हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा छहों लेश्याएं हो सकती हैं। पत्तिकाले भवेत्, पूर्वप्रतिपन्नकानां त्ववेदकत्वमपि . ध्यान-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा धर्म्यध्यान होता है। पूर्वप्रतिपन्न भवति। (बृभा १६३६-१६३८ वृ) की अपेक्षा चारों ध्यान हो सकते हैं। ० क्षेत्र- स्थविरकल्पिक पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच ० गणना-कल्प के स्वीकरण में भजना है-विवक्षित काल में विदेह-इन पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं। संहरण की अपेक्षा स्वीकार करते भी हैं और नहीं भी करते। यदि स्वीकार करते हैं तो तीस अकर्मभूमियों में भी हो सकते हैं। एक साथ एक, दो, तीन यावत् सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ ० काल-अवसर्पिणी काल में जन्म और सद्भाव की अपेक्षा हजार) व्यक्ति स्वीकार कर सकते हैं। पर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा तीसरे-चौथे-पांचवें अर में होते हैं। उत्सर्पिणीकाल में जन्म की । यक्त्व तक हो सकते हैं। अपेक्षा दूसरे-तीसरे-चौथे अर तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे व ० प्रव्राजना-मुंडापना चौथे अर में होते हैं। नोअवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में जन्म और सच्चित्तदवियकप्पं, छव्विहमवि आयरंति थेरा उ। सद्भाव की अपेक्षा दुःषमसुषमा प्रतिभाग में होते हैं । संहरण की कारणओ असहू वा, उवएस दिति अन्नत्थ ॥ अपेक्षा चारों प्रतिभागों में हो सकते हैं। (प्रतिभाग द्र जिनकल्प) प्रव्राजना मुण्डापना शिक्षापना उपस्थापना सम्भुञ्जना ० चारित्र-प्रतिपद्यमान की अपेक्षा स्थविरकल्पिक सामायिक और संवासना चेति। स्थविराः' गच्छवासिनः। स्वयं वस्त्रछेदोपस्थापनीय चारित्र में होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इनमें पात्रादिभिर्जानादिभिश्च शिष्याणां संग्रहोपग्रहो कर्तुमसमर्था पांचों चारित्र हो सकते हैं। ० तीर्थ-ये नियमतः तीर्थ में ही होते हैं, अतीर्थ में नहीं। उपदेशम् गच्छान्तरे प्रयच्छन्ति, अमुकत्र गच्छे संविग्न गीतार्था आचार्याः सन्ति तेषां समीपे भवता दीक्षा प्रति० पर्याय-इसके दो प्रकार हैं-१. गहिपर्याय-जघन्यतः साधिक आठ वर्ष, उत्कृष्टतः पूर्वकोटि। पत्तव्येति। (बृभा १६५४ वृ) २. दीक्षा पर्याय-जघन्य अन्तर्मुहूर्त (इसके पश्चात् मरण या पतन _स्थविरकल्पी छह प्रकारों से सचित्त द्रव्य कल्प का आचरण हो सकता है), उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि। करते हैं (शिष्य बनाते हैं)-१. प्रव्राजना २. मुण्डापना ३. शिक्षापना ० आगम-अपूर्वश्रुत का अध्ययन करते हैं, नहीं भी करते। ४. उपस्थापना ५. संभुंजना ६. संवासना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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