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स्थविरकल्प
विहार के समय यात्रापथ में गणधर साध्वी वर्ग के आगे चलता है। यदि मार्ग निरुपद्रव हो तो गणधर के साथ एक या दो साधु रहते हैं । वे साधु साध्वी के संबंधी अथवा जिनवचनों से भावित होने चाहिये । यदि मार्ग उपद्रवयुक्त होता है, तो गणधर किसी सार्थ के साथ अथवा शक्तिसम्पन्न साधु के साथ साध्वियों को विवक्षित क्षेत्र में पहुंचाता है।
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* गणधरनिश्रा में साध्वी प्रायोग्य वस्त्रग्रहण ३. वृषभ : मंडलीनियोजक, कार्यचिन्तक .....भोयणसुत्ते मंडलिय पढते वा मुनिवृषभा नियोजयन्ति ।
नियोयंति ॥ (व्यभा २७८ वृ)
वृषभ मुनियों को भोजनमंडली, सूत्रमंडली और अर्थमंडली में नियोजित करते हैं।
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द्र उपधि
समस्तगच्छभारोद्वहनसमर्थस्य वृषभस्य' ।
(व्यभा २०३० की वृ) वृषभ समस्त गच्छ का भारवहन करने में समर्थ होता है। (द्र परिषद्) 'वृषभाः ' गच्छस्य शुभाशुभकार्यचिन्तानियुक्ताः । (बृभा २०८५ की वृ)
गच्छ के लिए कौन सा कार्य शुभ है और कौन सा अशुभइस विमर्श के लिए वृषभ नियुक्त होते हैं ।
४. स्थविरकल्पी की प्रव्रज्या आदि
पव्वज्जा सिक्खापय, अत्थग्गहणं च अनियओ वासो । निष्पत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥ (बृभा १४४६ ) स्थविरकल्पी की विहारचर्या के आठ पद हैं - १. प्रव्रज्या २. शिक्षापद ३. अर्थग्रहण ४. अनियतवास ५. निष्पत्ति ६. विहार ७. सामाचारी और ८. स्थिति । (द्र जिनकल्प)
• प्रव्रज्या के पश्चात् शिक्षा
प्रव्रजितस्य च सतोऽस्य शिक्षा दातव्या । सा च द्विधा - ......ग्रहणशिक्षा सूत्राध्ययनरूपा, आसेवनशिक्षा प्रत्युपेक्षणादिका । (बृभा ११४३ की वृ)
प्रव्रजित होने के पश्चात् शिष्य को शिक्षा दी जाती है ।
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आगम विषय कोश-:
उसके दो रूप हैं - १. ग्रहण शिक्षा – सूत्रार्थ - अध्ययन | २. आसेवन शिक्षा - प्रत्युपेक्षणा आदि सामाचारी का प्रशिक्षण | ५. सामाचारी के सत्ताईस बिंदु: श्रुत आदि
सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेयणा कति जणा य । थंडिल्ल वसहि किच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे ॥ ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य । पाहुड अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य ॥ भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य । आयंबिल पडिमाओ, गच्छम्मि उ मासकप्पो उ ॥ (बृभा १६२४-१६२६) स्थविरकल्पी की सामाचारी के सत्ताईस द्वार हैं - १. श्रुत २. संहनन ३. उपसर्ग ४. आतंक ५. वेदना ६. कतिजन ७. स्थण्डिल ८. वसति ९ कियच्चिर १०. उच्चार ११. प्रस्रवण १२. अवकाश १३. तृणफलक १४. संरक्षणता १५. संस्थापनता १६. प्राभृतिका १७. अग्नि १८. दीप १९. अवधान २०. यहां कितने रहेंगे ? २१. भिक्षाचर्या २२. पानक २३. लेपालेप २४. अलेप २५. आचाम्ल २६. प्रतिमा २७ मासकल्प । ० स्थविरकल्पी की श्रुत - अर्हता .......पवयणमाय जहन्ने, सव्वसुयं चेव उक्कोसे ॥ (बृभा १६२७) स्थविरकल्पी जघन्यतः आठ प्रवचनमाता और उत्कृष्टतः सर्वश्रुत (चौदह पूर्वों) का ज्ञाता होता है ।
(पुलाक निर्ग्रथ का जघन्यतः श्रुतज्ञान नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु है। उत्कृष्टतः वह नौपूर्वी हो सकता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील और निर्ग्रथ-ये चतुर्विध निर्ग्रथ जघन्यतः आठ प्रवचनमाता के ज्ञाता होते हैं । बकुश और प्रतिसेवनाकुशील उत्कृष्टतः दस पूर्वी तथा कषायकुशील और निर्ग्रथ चौदह पूर्वी हो सकते हैं। स्नातक निर्ग्रथ श्रुतव्यतिरिक्त होते हैं। - भ २५ / ३१५- ३१८ )
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० संहनन, आतंक, उपसर्ग, वेदना
सव्वेसु वि संघ होंति धिइदुब्बला व बलिया वा । आतंका उवसग्गा, भइया विसहंति व न वत्ति ।।
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