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आगम विषय कोश-२
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सूत्र
समुत्पन्ने भवितव्यम्, यथा यथा संयम उत्सर्पति तथा तथा उत्पद्येत हि साऽवस्था, देश-काला-ऽऽमयान् प्रति । कर्त्तव्यमिति भावः। आह च बृहद्भाष्यकार:
यस्यामकार्यं कार्यं स्यात्, कर्म कार्यं च वर्जयेत्॥ कजं नाणादीयं, सच्चं पण होड संजमो नियमा।
(बृभा ३३३१ वृ) जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्वयं होई॥ जिससे राग-द्वेष निरुद्ध होते हैं, जिससे पूर्व कर्म क्षीण
(बृभा ३३३० वृ) होते हैं, वह अनुष्ठान मोक्ष का उपाय है। ज्वर आदि रोगों में (शिष्य ने कहा-किसी सूत्र में जिसका विधान है, अन्य उचित औषधिसेवन और अपथ्यपरिहार करने से रोग क्षीण होते हैं। सूत्र में उसी का निषेध है-यह विसंगति क्यों? आचार्य ने
उत्सर्गमार्ग में उत्सर्गविधि और अपवादमार्ग में अपवादकहा-) तीर्थंकर द्वारा कुछ भी अकल्पनीय अनज्ञात नहीं है और विधि का समाचरण करने से दोषों का निरोध और कर्मों की निर्जरा कारण उत्पन्न होने पर निषिद्ध नहीं है। तीर्थंकरों की निश्चय और
होती है। अथवा किसी रोगी के लिए जिस पथ्य या औषधि का व्यवहार-दोनों नयों के आश्रित आज्ञा है--साधु को कार्यसत्य । निषेध किया जाता है, वही दूसरे रोगी के लिए अनुज्ञात हो जाती होना चाहिए, ज्ञान आदि पष्ट आलम्बन के अभाव में माया से कोई है। इसी प्रकार समर्थ मुनि के लिए अकल्प्य का प्रतिषेध और भी आचरण नहीं करना चाहिए।
असमर्थ मुनि के लिए उसका विधान किया जाता है। आयुर्वेद अथवा सत्य का अर्थ है संयम। प्रयोजन होने पर संयमपर्वक शास्त्र में कहा गया हैप्रवृत्त होना चाहिए-जिस-जिस प्रकार से संयमवद्धि हो, संयम में देश, काल और रोगों में वह अवस्था उत्पन्न हो सकती है, स्थिरीकरण हो उस-उस प्रकार का आचरण करना चाहिए-ऐसा जिसमें अकार्य कार्य और कार्य अकार्य हो जाता है। बृहद्भाष्य में कहा गया है।
१५. उत्सर्ग और अपवाद तुल्य । जं जह सुत्ते भणितं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि। उज्जयसग्गुस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो। किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं ॥ उस्सग्गा विनिवतियं, धरेइ सालंबमववाओ॥
(बृभा ३३१५)
धावंतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं।
किं वा मउई किरिया, न कीरये असहुओ तिक्खं॥ सत्र में विधि अथवा निषेध रूप में जो जहां कहा गया है.
उन्नयमविक्ख निन्नस्स, पसिद्धी उन्नयस्स निन्नाओ। यदि उसको वैसा ग्रहण करना होता तथा विषय-विभाग
इय अन्नन्नपसिद्धा, उस्सग्गऽववायमो तल्ला॥ व्यवस्थापन अथवा युक्त-अयुक्त के विमर्श की आवश्यकता नहीं होती तो विशिष्ट ज्ञानी एवं नयविशारद आचार्य नियुक्ति
जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अववाया। आदि के माध्यम से कालिकत के अनयोग का प्रतिपादन ही
जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव॥ क्यों करते?
(बृभा ३१९-३२२) १४. उत्सर्ग-अपवाद : निर्जरा के हेतु
उद्यत सर्ग (विहार) उत्सर्ग है। उसका प्रतिपक्ष है अपवाद। दोसा जेण निरुब्भंति, जेण खिजंति पुव्वकम्माइं।
मुनि उत्सर्ग मार्ग से च्युत होने पर पुष्ट कारणों का आलम्बन लेकर सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा॥
अपवाद मार्ग को अपनाता है। .."उत्सर्गे उत्सर्गमपवादेऽपवादं समाचरतो रागादयो
गन्तव्य की ओर दौड़ता हुआ व्यक्ति जब थक जाता है, तब
क्या वह अपने ज्ञात मार्ग पर स्वाभाविक गति से नहीं चलता? दोषा निरुध्यन्ते । अथवा यथा कस्यापि रोगिणः पथ्यौष
क्या तीक्ष्ण क्रिया को सहने में असमर्थ रोगी की मद क्रिया नहीं धादिकं प्रतिषिध्यते कस्यापि पुनस्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि
की जाती है? यः समर्थस्तस्याकल्प्यं प्रतिषिध्यतेऽसमर्थस्य तु तदेवानुज्ञायते। उक्तञ्च भिषग्वरशास्त्रे
उन्नत की अपेक्षा से निम्न की और निम्न से उन्नत की
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