Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 674
________________ आगम विषय कोश-२ ६२७ स्थविर सकारण एक स्थान पर रहता हुआ मुनि तीर्थंकर की आज्ञा है। कोई नौ वर्ष की अवस्था में ही श्रमण बन गया और श्रामण्यग्रहण का पालन और संयम की धुरा का वहन करता है। मुक्तधुरा वाले के तत्काल बाद प्रतिकूल कर्मोदय वश जंघाबल की क्षीणता या संयमी के चारित्र की शोधि नहीं होती। संयमधुरावाही के नियमतः । रोग के कारण विहरण करने में असमर्थ हो गया, उसका एक स्थान ज्ञान आदि गुणों की वृद्धि होती है, उस कारण से उसके विपुल पर रहने का काल पूर्वकोटि हो सकता है। यह उत्कृष्ट कालपरिमाण निर्जरा होती है। गणवृद्धि के निमित्त नित्यवास करने वाले के अर्हत् ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से है। जिस तीर्थंकर के शासनकाल कालातिक्रांत दोष नहीं लगता। जहां गुणों की हानि हो, वहां में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, नौ वर्ष प्रमाण गृहिपर्याय को विहार नहीं करना चाहिए। छोड़कर उतना उत्कृष्ट वृद्धवास काल हो सकता है। • वृद्धावास नित्यवास नहीं ५. वृद्धवास के हेतु चाउम्मासातीतं, वासाणुदुबद्ध मासतीतं वा। सुत्तागम बारसमा, चरियं देसाण दरिसणं तु कतं। वुड्डावासातीतं, वसमाणे कालतोऽणितिते॥ उवकरण-देह-इंदिय, तिविधं पुण लाघवं होति॥ वुड्डकार्यपरिसमाप्तौ उपरिष्टाद् वसन् नितिओ भवति। चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ, अव्वोच्छित्ताय होति सिद्धिपहो। (निभा १०१६ चू) सुत्तविहीए संजम, वुड्डो अह दीहमाउं च॥ वर्षाकाल के चार मास और ऋतुबद्धकाल का एक मास अब्भुज्जतमचएंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो। अच्छति जुण्णमहल्लो, कारणतो वा अजुण्णो वी॥ बीत जाने पर जो मुनि उसी क्षेत्र में रहता है, वह कालनित्य के जंघाबले च खीणे, गेलण्णऽसहायता व दुब्बल्ले। दोष से दूषित होता है। जो वृद्ध के निमित्त एक स्थान पर बहुत अहवावि उत्तमढे, निप्फत्ती चेव तरुणाणं॥ समय तक रहता है, वह नित्यवासी नहीं है । वृद्ध का कार्य सम्पन्न खेत्ताणं च अलंभे, कतसंलेहे च तरुणपडिकम्मे। होने के पश्चात् जो वहीं रहता है, वह नित्यवासी है। एतेहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि॥ ४. वृद्धवास का अर्थ, कालावधि (व्यभा २२५९-२२६३) वुड्डस्स उ जो वासो, वुढेि व गतो तु कारणेणं तु। जो बारह वर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण तथा बारह एसो उ वुड्डवासो, तस्स उ कालो इमो होति॥ वर्ष देशाटन कर चुका है, जो उपकरण, शरीर और इन्द्रिय-इस अंतोमुहुत्तकालं, जहन्नमुक्कोसपुव्वकोडीओ। त्रिविध लाघव से सम्पन्न है, जिसने उपवास, बेला आदि नाना मोत्तुं गिहिपरियागं, जं जस्स उ आउगं तित्थे॥ प्रकार का तप किया है तथा जिसने देशदर्शन के पश्चात् बारह वर्ष वृद्धवासबुद्ध्या स्थितस्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं मरण शिष्य परम्परा की अविच्छिन्नता के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश भावाद् गृहिपर्याय नववर्षलक्षणं मुक्त्वा नववर्षोना पूर्व दिया है और आगमविधि से संयम का पालन किया है, इतना सब कोटीकोऽपि नववर्षप्रमाण एव श्रमणो जातः। स च कुछ करने के पश्चात् जो वृद्ध हो गया है, दीर्घायु है, अभ्युद्यतविहार श्रामण्यपरिग्रहात् तदनन्तरमेव प्रतिकूलकर्मोदयवशतः क्षीण कूलकमादयवशतः क्षाण- में असमर्थ है, जिसके शिष्य अभी अगीतार्थ हैं, जो गणप्रतिबद्ध जंघाबलतया रोगेण वा विहर्तुमसमर्थो जातस्तत एकत्र और महान् जराजीर्ण है, वह वृद्धवास में रहता है। वासो यथोक्तकालमानो भवति। (व्यभा २२५६, २२५७ वृ) तरुण भी जंघाबल की क्षीणता, रुग्णता, असहायता, दुर्बलता क्षीण जंघाबल वाले वृद्ध श्रमण-श्रमणी का प्रवास वृद्धवास आदि कारणों से वृद्धवास में रहता है। है। अथवा रोग आदि कारणों से वृद्धिंगत वास वृद्धवास है। जो अनशन या संलेखनाप्रतिपन्न है अथवा जो तरुणों को वृद्धवास की जघन्य कालावधि अंतर्मुहूर्त है, क्योंकि वृद्धवास की सूत्रार्थ में निष्पन्न करता है या विहरण क्षेत्रों का अभाव है या जो भावना से स्थित मुनि का अंतर्मुहूर्त पश्चात् मरण हो सकता है। तरुण रोगमुक्त होने पर भी बलवृद्धि करना चाहता है-इन सब इसकी उत्कृष्ट कालावधि गृहिपर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि कारणों से वृद्धवास अपेक्षित और उपयोगी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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