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स्थविर
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आगम विषय कोश-२
अधवा आहारुवधी, सेज्जा अणुकंप एस तिविधा उ। त्रिविध स्थविरों के प्रति यथोचित व्यवहार करेपढमालिदाणविस्सामणादि, उवधी य वोढव्वे॥ १. जातिस्थविर के प्रति अनुकम्पा-उनके आहार, उपधि, शय्या खेत्तेण अद्धगाउय, कालेण य जाव भिक्खवेला उ। और संस्तारक की समुचित व्यवस्था करना। यात्रापथ में उनकी खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कम थेरं॥ उपधि वहन करना, यथास्थान पानी पिलाना आदि। अण्णो जस्स न जायति, दोसो देहस्स जाव मज्झण्हो। २. श्रुतस्थविर की पूजा-उनका कृतिकर्म करना, उनके अभिप्राय सो विहरति सेसो पुण, अच्छति मा दोण्ह वि किलेसो॥ का अनुवर्तन करना, आने पर खड़ा होना, उन्हें आसन देना, भमो वा पित्तमुच्छा वा, उद्धसासो व खुब्भति। पादप्रमार्जन करना, तत्प्रायोग्य आहार लाकर देना, परोक्ष में भी
(व्यभा २२६६-२२७१) उनकी प्रशंसा और गुणोत्कीर्तन करना, उनके सामने नीची शय्या जो स्थविर सूर्योदय से प्रारम्भ कर जब तक भिक्षावेला (आसन) पर बैठना और उनके निर्देश की अनुपालना करना। होती है, तब तक एक कोस चलने में समर्थ है, वह पराक्रमी है, ३. पर्यायस्थविर की वन्दना-गुरु न होने पर भी जो दीक्षापर्याय में वह विहार करे। इससे कम चलने वाला विहार न करे। ज्येष्ठ हैं, उनके आने पर खड़े होना, वन्दना करना, उनके हाथ से वृद्धअनुकम्पा-सहयोगी मुनि मार्ग में स्थविर को जब जहां विश्राम
दण्ड ग्रहण करना आदि। की अपेक्षा हो, वहां विश्राम कराए, उसके उपकरणों को वहन करे,
३. नित्यवास का निषेध और अपवाद तत्प्रायोग्य आहार-पानी लाकर दे, अपेक्षा होने पर हस्तावलम्बन दे। यह त्रिविध-एक, डेढ़ और दो गव्यूत संबंधी अनुकंपा है।
जे भिक्खू नितियं वासं वसति॥ (नि २/३६) अथवा वृद्ध अनुकंपा के तीन प्रकार ये हैं
जो भिक्षु नित्यवास करता है, वह प्रायश्चित्तार्ह है। ० आहार-प्रथमालिका (प्रातराश) देना।
(ऋतुबद्धकाल और वर्षाकाल की नियत अवधि के अतिरिक्त ० शय्या-स्थान पर पहुंचकर पगचंपी करना।
एक क्षेत्र में रहना नित्यवास कहलाता है।) ० उपधि-मार्ग में उपधि वहन करना।
असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व आगाढे। जो स्थविर सूर्योदय से भिक्षावेला पर्यंत आधा कोस ही गेलण्ण उत्तमढे, चरित्तसज्झाइए असती॥ चल पाता है, वह अपराक्रमी है, वह विहार न करे।
एगक्खेत्तणिवासी, कालातिक्कंतचारिणो जति वि। प्रातः से मध्याह्न तक मार्ग में चलते हुए जिस स्थविर के तह वि य विसुद्धचरणा, विसुद्धमालंबणं जेणं॥ चक्कर, पित्तमूर्छा, श्वास-प्रकोप आदि अन्य दोष उत्पन्न न हों आणाए ऽमुक्कधुरा, गुणवुड्डी जेण णिज्जरा तेणं। तो वह विहार करे, अन्यथा न करे, जिससे स्वयं और सहयोगी मुक्कधुरस्स मुणिणो, ण सोधी संविज्जति चरित्ते॥ दोनों को क्लेश न हो।
गुणपरिवुड्डिणिमित्तं, कालातीते ण होंति दोसा तु। ० स्थविरों का विनय-वैयावृत्त्य
जत्थ तु बहिता हाणी, हविज्ज तहियं न विहरेज्जा। तिविधम्मि व थेरम्मी, परूवणा जा जधिं सए ठाणे।
(निभा १०२१-१०२४) अनुकंप सुते पूया, परियाए वंदणादीणि
निम्न कारणों से नित्यवास किया जा सकता हैआहारोवहि-सेज्जा य, संथारे खेत्तसंकमे। . प्रवासस्थान के बाहरी क्षेत्र में महामारी, दुर्भिक्ष, राजा, दुष्ट चोर कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति थेरगं॥ आदि का अति भय हो। रोग आदि हो। अनशनधारी और उसके उट्ठाणासणदाणादि,
जोग्गाहारपसंसणं। परिचारक हों। बाहर चारित्र में दोषों की संभावना हो। स्वाध्याय नीयसेज्जाय निद्देसवत्तितं पूजए सुत्तं ॥ की अनुकूलता न हो। मासकल्प प्रायोग्य क्षेत्र न हो। इन कारणों से उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य। भिक्षु एक क्षेत्र में अतिरिक्त अवधि तक रहता हुआ यद्यपि परियायथेरगस्सा, करेंति अगुरोरवि॥ कालातिक्रांतचारी होता है, फिर भी ज्ञान आदि विशुद्ध आलम्बनों
(व्यभा ४५९८-४६०१) के कारण उसका चारित्र विशद्ध होता है।
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