________________
आगम विषय कोश - २
स्कंधों को ग्रहण कर मनन करता है। वे स्कंध संख्या में अनंत 1 असंज्ञी प्राणी मनोद्रव्य के अभाव में मूर्च्छित, उन्मत्त और प्रसुप्त व्यक्ति की तरह अव्यक्त उपयोग वाले होते हैं । उनमें से जिनके जितनी इन्द्रियां होती हैं, उनको उतना स्फुट बोध होता है। ३. मन : बंधन और मुक्ति का हेतु
माणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु । इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ॥ (व्यभा १०२९)
व्यक्ति मन से विषयों में आसक्त होता है और मन से ही उनसे विरक्त होता है। इसी प्रकार अध्यात्म-परिणामों के अनुरूप कर्मबंध होता है । अतः कर्मबंध में विषय प्रमाण नहीं हैं । ४. मन - परिणामों की विचित्रता
मणपरिणामो वीई, सुभासुभे कंटएण दिट्टंतो । खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति ॥ (व्यभा २७५८)
जैसे सरिता में निरंतर अनेक तरंगें उठती रहती हैं, वैसे ही मन की शुभ-अशुभ परिणतियां होती रहती हैं।
जैसे वृश्चिककंटक कृष्ण आदि रेखाओं के कारण नाना प्रकार का होता है, वैसे ही कालभेद से एक लेश्यास्थान में असंख्येय परिणाम स्थान होते हैं । (द्र लेश्या)
से
नर्तकी के बांस पर आरोह-अवरोह की भांति मन की शुभ अशुभ में और अशुभ से शुभ में परिणति होती रहती है। ५. मन की एकाग्रता का हेतु
॥
मणसो एगग्गत्तं, जणयति....। काउस्सग्गगुणा" तच्चैकाग्रत्वं परमं ध्यानम् । (व्यभा १२४ वृ) कायोत्सर्ग से मन की एकाग्रता निष्पन्न होती है और वह एकाग्रता परम ध्यान है।
1
४५९
मनः पर्यवज्ञान - मनोद्रव्य को साक्षात् जानकर उसके आधार पर मनोगत भावों को जानने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान । द्र ज्ञान * मनः पर्यवज्ञान : चित्तसमाधिस्थान * मनः पर्यवज्ञान- विच्छेद कब ?
Jain Education International
द्र चित्तसमाधिस्थान
द्र स्थविरावलि
मनुष्य - विकास की सर्वाधिक क्षमता रखने वाला प्राणी । द्र दीक्षा द्र श्रीआको १ मनुष्य
*
'मनुष्य'
'की दस अवस्थाएं
मरण - जीवनकाल को निष्पन्न करने वाले आयुष्यकर्म के परमाणुस्कंधों की समाप्ति ।
१. मरण- च्यवन : आयुक्षय.....
२. बालमरण के प्रकार
*
'अभ्युद्यत (पण्डित) मरण
३. मरण और गति
मरण
* आराधना से भवसीमा
* सशल्यमरण से भवभ्रमण
* अनित्य भावना से शोकापनयन
* मुनि के शव - परिष्ठापन की विधि * आयुष्यकर्मबंध के हेतु
द्र अनशन
For Private & Personal Use Only
द्र आराधना
द्र आलोचना
द्र भावना
द्र महास्थण्डिल
द्र कर्म
१. मरण- च्यवन : आयुक्षय.....
समणे भगवं महावीरे महाविमाणाओ वीसं सागरोमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए देवाणंदा कुच्छिंसि गब्भं वक्कंते ॥ ( आचूला १५/३)
श्रमण भगवान् महावीर प्राणत नामक दसवें देवलोक के महाविमान में देवरूप में बीस सागरोपम की आयु पालकर आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर देवानंदा की कुक्षि में अवतरित हुए ।
(नैरयिक और भवनवासी देव अधोलोक में रहते हैं । वे मरकर ऊपर आते हैं, इसलिए उनके मरण को उद्वर्तन कहा जाता है। ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव ऊर्ध्व स्थान में रहते हैं । वे आयुष्य पूर्ण कर नीचे आते हैं, इसलिए उनके मरण को च्यवन कहा जाता है । -स्था २ / २५१, २५२
• आयुक्षय - आयुष्य कर्म के पुद्गलों का निर्जरण ।
० भवक्षय - वर्तमान भव (पर्याय) का सर्वथा विनाश।
०
स्थितिक्षय - आयुस्थितिबंध का क्षय ।-स्था ८/१० की वृ) २. बालमरण के प्रकार
......गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि
www.jainelibrary.org