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आगम विषय कोश - २
भवेज्जा, पवाताणिवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, ससरक्खा अप्पससरक्खा सदंस-भसगा अप्पदंसमसगा सपरिसाडा ''अपरिसाडा''सउवसग्गा'णिरुवसग्गा''तहप्पगाराहिं सेज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्गहिततरागं विहारं विहरेज्जा, णो किंचिवि गिलाएज्जा ॥ (आचूला २/७६) कभी शय्या ( मकान ) सम मिलती है, कभी विषम, कभी हवादार और कभी निर्वात, कभी रजों से युक्त और कभी नीरज, कभी डांस-मच्छरों से युक्त और कभी डांस-मच्छरों से रहित, कभी जीर्ण-शीर्ण और कभी सुदृढ़, कभी उपसर्गसहित और कभी निरुपसर्ग-मुनि उस प्रकार की संविद्यमान शय्याओं को ग्रहण कर उनमें समभावपूर्वक रहे, किंचित् भी खेदखिन्न न हो ।
......सज्झायस्सऽणुवरोहि समविसमादी सु य, समणेणं
जइयव्वं । निज्जरट्ठा ॥
(आनि ३२७)
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स्वाध्याय में उपरोध- बाधा उत्पन्न न करने वाली शय्या सम हो या विषम, निर्जरार्थी श्रमण को उसमें रहना चाहिये । १७. गृहान्तर - निषद्या: निषेध एवं अपवाद नो कप्पड़ अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झात्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए । 'वाहिए जराणे तवस्सी दुब्बले किलंते एवं से कप्पइ अंतरहिंसि चिट्ठित्तए | (क ३/२१, २२) पीसंति ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो ।...... वासासु व वासंते, अणुण्णवित्ताण तत्थऽणाबाहे । अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिट्ठति ॥ पडिणीय णिवे एंते, तस्स व अंतेउरे गते फिडिए । वुग्गह णिव्वहणाती, वाघातो एवमादीसु॥ (बृभा ४५६०, ४५६२, ४५६३) निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी (भिक्षाटन करते समय ) गृहस्थ के घर में ठहरना, बैठना, सोना, निद्रा लेना, ऊंघ लेना, आहार करना, मल-मूत्र आदि परिष्ठापित करना, स्वाध्याय और ध्यान करना,
कायोत्सर्ग में स्थित होना आदि क्रियाएं नहीं कर सकते। रुग्ण, जराजीर्ण, तपस्वी, दुर्बल और क्लांत मुनि गृहांतर में ठहर सकते हैं।
शय्या
किसी रोगी के लिए औषधि पीसना हो, किसी घर से औषधि लाना हो और औषधिदाता उस समय व्यस्त हो, उसकी प्रतीक्षा करनी हो, वर्षा बरस रही हो - इन कारणों से मुनिद्वय गृहस्थ से आज्ञा लेकर उसके घर या अंतरगृह के निर्बाध स्थान में यतनापूर्वक (विकथा आदि नहीं करते हुए ) ठहर सकते हैं।
गृहस्थ के घर गया हुआ मुनि प्रत्यनीक राजा और राजा के अन्तःपुर को आता हुआ देखकर - जब तक ये चले नहीं जाते, तब तक अन्तरगृह में ठहर सकता है। दो व्यक्ति विग्रह करते हुए आ रहे हों, वर-वधू की शोभयात्रा आ रही हो अथवा गायकमंडलियां गीत गाती हुई आ रही हों तो मुनि अन्तरगृह में ठहर सकता है। अंतरगृह में धर्मकथा निषिद्ध
नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तएनण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा । सेवि य ठिच्चा, नो चेव णं अट्ठिच्चा ॥ (क ३/२३) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी भिक्षाटन करते समय गृहस्थ के घर में चार या पांच गाथाओं का आख्यान नहीं कर सकते। आवश्यक होने पर केवल एक दृष्टांत, एक प्रश्नव्याकरण, एक गाथा या क श्लोक द्वारा खड़े-खड़े धर्मकथा कर सकते हैं, बैठकर नहीं । १८. शय्या - संस्तारक का निर्वचन और प्रकार
शेरतेऽस्यामिति शय्या - वसतिः, सैव संस्तारकः शय्यासंस्तारकः । (बृभा २९२४ की वृ सेज्जासंथारो या, सेज्जा वसही उ थाण संथारो ||....... शय्या - वसतिस्तस्यां यत् स्थानं - शयनयोग्यावकाशलक्षणं स शय्यासंस्तारक उच्यते। (बृभा ४३६८ वृ) सिज्जा संथारो या, परिसाडी अपरिसाडि मो होइ ।" (बृभा ४५९९)
"नीहारिमो
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अणीहारिमो
य.....॥
(बृभा ४६१० )
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