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आगम विषय कोश-२
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शरीर
लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न किया गया है, उसके लिए वह आपकी सुरक्षा की चिन्ता करूंगा। आप निश्चित रहें-शय्यातर के निषिद्ध है, शेष साधुओं के लिए वह अनुज्ञात है) किन्तु शय्यातरपिंड इस अभ्युपगम को निश्रा कहा जाता है।) किसी भी तीर्थंकर द्वारा अनुज्ञात नहीं है।
निग्रंथ कारण से शय्यातर की निश्रा में और अकारण अनिश्रा ११. शय्यातर द्वारा पृच्छा : कब? कितने?
में रहे। वह निष्कारण निश्रा में रहता है, तब चतुर्लघु तथा कारण से जाव गुरूण य तुब्भ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। निश्रा में नहीं रहता है, तब चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। केवइ कालेणेहिह, सागार ठवंति अन्ने वि॥ १३. साध्वी के शय्यातर की अर्हता पुव्वद्दिटेविच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइआ।
.... भीतपरिस मद्दविदे, अज्जा सिज्जायरे भणिए॥ तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुन्नाओ॥
भीतपर्षद् नाम यद्भयात् तदीयः परिवारो न कमप्य(बृभा १५०१, १५०२) नाचारं कर्तुमुत्सहते।
(बृभा ३२२५ वृ) आप कब तक यहां रहेंगे? शय्यातर के द्वारा ऐसा पूछे जाने पर मुनि कहते हैं-जब तक आपको और गुरु को अभीष्ट होगा।
जो भीतपर्षद् है जिसके भय से उसका परिवार किसी
प्रकार के अनाचार-सेवन का साहस नहीं कर सकता और जो आप कितने साधु यहां रहेंगे? यह पूछने पर मुनि कहे-हमारे गुरु सागरतुल्य हैं। (सागर कभी फैलता है, कभी संकुचित होता है। मधुरभाषी है, वह साध्वियों का शय्यातर बनने योग्य है। उपसम्पदाग्रहण करने पर आचार्य का शिष्यपरिवार बढ़ जाता है, शरीर-काय। पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का उनके अन्यत्र चले जाने पर साधुओं की संख्या घट जाती है।)
माध्यम। - आप कब आएंगे? यह पूछने पर मुनि सविकल्प वचन का प्रयोग करते हैं-अन्य दिशाओं में भी क्षेत्रप्रत्युपेक्षक गए हुए हैं।
| १. व्यक्ति के बाह्य-आभ्यन्तर लक्षण उनके आने के बाद क्षेत्रविमर्श होने पर गुरु को यदि इष्ट होगा और
___ * द्रव्यबंध : कायप्रयोग
द्र कर्म
२. देव आदि के शरीर में लक्षण कोई बाधा नहीं होगी तो इतने दिनों के बाद यहां आएंगे।
३. लक्षण और व्यंजन में अंतर __शय्यातर पूर्व दृष्ट साधुओं को चाहता है अथवा वह कहता
___* शरीरसंपदा : आरोह-परिणाह. द्र गणिसंपदा है-परिचित या अपरिचित जो भी साधु हों पर वे इतनी संख्या में
४. मान-उन्मान-प्रमाण पुरुष ही यहां रह सकते हैं- इस प्रकार शय्यातर के द्वारा निर्धारित ___* शरीर और संहनन
द्र संहनन करने पर मुनि वहां नहीं रह सकते। लेकिन मासकल्प प्रायोग्य
१. व्यक्ति के बाह्य-आभ्यन्तर लक्षण दूसरा क्षेत्र नहीं होने पर वहां अनुज्ञा लेकर रह सकते हैं।
दुविहा य लक्खणा खलु, अब्भितरबाहिरा उ देहीणं। १२. शय्यातर की निश्रा-अनिश्रा
बहिया सर-वण्णाई, अंतो सब्भावसत्ताई। नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारिय-अनिस्साए वत्थए। बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं च बहुतराइं च।
कप्पइ निग्गंथाणं सागारिय-निस्साए वा अनिस्साए वा देहेसू देहीणं, लक्खणाणि सुहकम्मजणियाणि॥ वत्थए।
(क १/२२, २४)
__ पागयमणुयाणं बत्तीसं, अट्ठसयं बलदेववासुदेवाणं, साहू निस्समनिस्सा, कारणि निस्सा अकारणि अनिस्सा। अट्ठसहस्सं चक्कवट्टितित्थकराणं। जे पुट्ठा हत्थपादादिसु निक्कारणम्मि लहुगा, कारणे गुरुगा अनिस्साए॥ लक्खिजंति तेसिं पमाणं भणियं, जे पुण अंतो स्वभावसत्तादी
(बृभा २४४६) तेहिं सह बहुतरा भवंति, ते य अण्णजम्मकयसुभणामसरीरनिग्रंथी शय्यातर की निश्रा के बिना न रहे। (साध्वीवर! मैं अंगोवंगकम्मोदयाओ भवंति। (निभा ४२९२, ४२९३ चू)
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