Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 661
________________ साम्भोजिक ६१४ आगम विषय कोश-२ ११. एक ही दोष चौथी बार सेवन से विसांभोजिक और चारित्र-जो इन नौ स्थानों का प्रत्यनीक होता है, उसे एगं व दो व तिण्णि व, आउटुं तस्स होति पच्छित्तं। विसांभोजिक कर दिया जाता है।-स्था ९/१ आउटुंते वि ततो, परेण तिण्हं विसंभोगो॥ . समवाय (१२/२) में बारह प्रकार के संभोग का उल्लेख है। स किमवि कातूणऽधवा, सुहम वा बादरं व अवराह। ० सांभोजिक का भक्ति-बहुमान और वर्णसंज्वलन करना णाउट्ट विसंभोगो, असद्दहते असंभोगो॥ अनाशातना-दर्शन-विनय है।-भ २५/५८६) (निभा २०७५, २०८३) १२. कुशीलसंसर्ग से विसांभोजिक एक सांभोजिक मुनि एक बार, दो बार अथवा तीन बार __पडिसेधे पडिसेधो, असंविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो।" अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करता है, तो उसे सचेत करने पर वह पासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे जा तु तेसि संसग्गी। 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहता हआ उस अपराध से निवत्त हो जाता पडिसिज्झति एसो खल, पडिसेधे होड पडिसेधो॥ है, पुनः न करने का संकल्प करता है, तब उसे उस कृतदोष का सूयगडंगे एवं धम्मज्झयणे निकाचितं भणियं । प्रायश्चित्त दिया जाता है। अकुसीले सदा भिक्खू नो य संसग्गियं भए। तीन बार से अधिक, चौथी बार यदि वही अतिचार सेवन (व्यभा २८९७-२८९९) करता है तो उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। जो असंविग्न-पार्श्वस्थ आदि कुशील हैं, उनका संसर्ग जो मुनि छोटा या बड़ा कोई भी अपराध कर उससे निवृत्त प्रतिषिद्ध है। दान-ग्रहण (आहार आदि के आदान-प्रदान) द्वारा नहीं होता है या साधु-सामाचारीनिरूपण में श्रद्धा नहीं करता है, उनका संसर्ग होता है। जो साधु प्रतिषेध करने पर भी तीन बार से उसे भी असांभोजिक कर दिया जाता है। अधिक यह संसर्ग करता है, उसे विसांभोजिक कर दिया जाता है। (तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक सांभोगिक पार्श्वस्थ आदि कुशील होना भी निषिद्ध है और कुशील का संसर्ग को विसांभोगिक करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता- भी निषिद्ध है-यह प्रतिषेध का प्रतिषेध है। सूत्रकृतांग के 'धर्म' १. स्वयं किसी को सामाचारी के प्रतिकूल आचरण करते हुए अध्ययन (स १/९/२८) में यह निश्चयपूर्वक प्रतिपादित हैदेखकर, २. श्राद्ध (विश्वासपात्र) से सुनकर, ३. तीन बार अनाचार 'भिक्षु सदा अकुशील रहे, कुशीलों के साथ संसर्ग न करे।' का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी बार प्रायश्चित्त विहित नहीं होने १३. सांभोजिक साधु-साध्वी : आलोचना निषेध के कारण।-स्था ३/३५० जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं ___पांच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक सांभोगिक कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोएत्तए।अस्थियाइं त्थ केइ को विसांभोगिक-मंडली-बाह्य करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण आलोयणारिहे, कप्पइ ण्हं तस्स अंतिए आलोएत्तए, नत्थियाई नहीं करता-१. जो अशुभ कर्म का बंधन करने वाले कार्य का स्थ केइ आलोयणारिहे, एवं ण्हं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए प्रतिसेवन करता है। २. प्रतिसेवन कर जो आलोचना नहीं करता। आलोएत्तए॥ (व्य ५/१९) ३. आलोचना कर जो प्रस्थापन (प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तप का प्रांरभ) नहीं करता। ४. प्रस्थापन कर जो निर्वेश (प्रायश्चित्त का सांभोजिक निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी परस्पर एक-दूसरे के समीप आलोचना नहीं कर सकते। स्वपक्ष में आलोचना हो तो उसी के पूर्ण निर्वाह) नहीं करता। ५. जो स्थविरों के स्थितिकल्प होते हैं, उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण करता है, दूसरों के । पास तथा आलोचना न होने पर साधु-साध्वी को.परस्पर आलोचना समझाने पर यह कहता है-'लो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूं, करना चाहिए। स्थविर मेरा क्या करेंगे?' –स्था ५/४६ १४. सम्भोज उपसम्पदा विधि आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, ज्ञान, दर्शन भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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