Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 660
________________ आगम विषय कोश-२ ६१३ साम्भोजिक प्राचीनकाल में अर्धभरतक्षेत्र में सब संविग्न साधुओं की ० दर्शन संभोज-दर्शन/श्रद्धा मोक्षमार्ग का मूल है। सूत्रग्रन्थों में संभोजविधि एकरूप थी। तत्पश्चात् कालदोष से ये सांभोजिक हैं उत्सर्ग-अपवादरूप और निश्चय-व्यवहार रूप जो भाव प्रज्ञप्त हैं, और ये असांभोजिक हैं-इस प्रकार का विभाग प्रवृत्त हुआ। उन पर श्रद्धा करने वाला दर्शन-सांभोजिक है। कूप दृष्टांत-एक गांव की एक दिशा में मधुर जल के अनेक कूप ० ज्ञान संभोज–'किं मे कडं किं च मे किच्चसेसं'..... इस प्रकार थे। उनमें से कुछ कूप आगंतुक दोषों के कारण तथा कुछ कूप उसी की श्रुतज्ञान की अनुशिष्टि में उपयुक्त होने वाला ज्ञानसांभोजिक है। भूमि से उत्थित क्षार-लवणमय विषम जलस्रोतों के कारण अपेय . चारित्र संभोज-जो चारित्र में उद्यमशील है, विषण्ण नहीं होता बन गए। वहां के लोगों को सदोष-निर्दोष जल की जानकारी थी। है, वह चारित्र सांभोजिक है। इसलिए वे पूछते-यह जल किस कूप से लाए हो? निर्दोष होता . तप संभोज-जो इहलोक और परलोक की आशंसा से तप नहीं तो उपयोग करते अन्यथा वर्जन करते। कोई जानबूझकर सदोष जल करता, निर्जरा के लिए तप करता है, वह तप सांभोजिक है। जो लाता तो उसकी भर्त्सना करते। अनजान में लाने वाले को सावधान तपोयोग में वीर्य का गोपन करता है, उसे विसांभोजिक कर दिया कर पुनः वैसा जल लाने का निषेध करते। जब तक कूप शुद्ध थे, जाता है-यह सोचकर वह तप में उद्यम करता है। तब तक यह पृच्छा नहीं होती थी कि पानी कहां से लाए? ० उत्तरगुणसंभोज-विसंभोज उत्तरगुणों में होता है या मूलगुणों अविणट्रे संभोगे, अणातणाते य नासि पारिच्छा।.... में? आचार्य कहते हैं-विसंभोज उत्तरगुणों में होता है। आर्यसुहस्तिशिष्यद्रमकप्रव्रज्याप्रतिपत्तिप्रभृतित आराद् जो सांभोजिक होता है, उत्तरगुणों में विषण्ण या शिथिल विनष्टः संभोगः। होने पर उसकी सारणा-वारणा की जाती है। इस प्रकार (व्यभा २९०८ वृ) उत्तरगुणसंरक्षण से मूलगुण संरक्षित होते हैं। आर्य महागिरि से पूर्व अथवा उन तक संभोज व्यवस्था विद्यमान थी। तब तक ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा नहीं होती थी। १० साधु-साध्वी की विसांभोजिककरण-विधि आर्य सहस्ती के शिष्य द्रमक की प्रव्रज्या के पश्चात संभोज विनष्ट जे निग्गंथा य निग्गंधीओ य संभोडया सिया, नो ण्हं हुआ। तब से ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा कर, आलोचनीय की आलोचना पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए, कप्पइ ण्हं कर एक मण्डली में आहार किया जाने लगा। पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोडयं विसंभोडयं करेत्तए। जत्थेत ९. विसंभोज उत्तरगुणों में : दर्शन संभोज आदि अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अह णं अज्जो! ......"दंसण-णाण चरित्ते, तवहेउं उत्तरगणेस॥ तुमए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पच्चक्खं संभोगं विसंभोगं सहहणा खल मुलं, सहहमाणस्स होति संभोगो। करेमि। से य पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ"विसंभोइयं णाणम्मि तवओगो, तहेव अविसीयणं चरणे॥ करेत्तए॥ जाओ निग्गंथीओ'नो ण्हं कप्पइ पच्चक्खं पाडिदसण-णाण-चरित्ताण, वुद्भिहेउं तु एस संभोओ। एक्कं संभोइणिं विसंभोइणिं करेत्तए॥ (व्य ७/४, ५) तवहेउ उत्तरगुणेसु चेव सुहसारणा भवति॥ जो निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां सांभोजिक हैं, उनमे निर्ग्रन्थो विसंभोओ किं उत्तरगुणे मूलगुणे? आयरिओ भणति- को परोक्ष में सांभोजिक से विसांभोजिक (संबंध-विच्छेद) नही उत्तरगुणे। अधवा-उत्तरगुणे सीयंतो संभोतिओ त्ति काउं किया जा सकता, प्रत्यक्ष में किया जा सकता है। जहां भी वे चोतिजति। एवं चोयणाए उत्तरगुणसंरक्खणे मूलगुणा परस्पर मिलें, वहीं आचार्य इस प्रकार कहे-आर्य! मैं अमुक संरक्खिया भवंति। (निभा २०६९, २१५५, २१५६ चू) कारण से तुम्हें प्रत्यक्ष में सांभोजिक से विसांभोजिक करता हूं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की वृद्धि के लिए संभोज यदि वह पश्चात्ताप करे तो उसका संबंध विच्छेद नहीं किया ज व्यवस्था अभिलषणीय है। सकता। साध्वियों को प्रत्यक्ष में विसांभोजिक नहीं करना चाहिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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