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सार्थवाह
जिस सार्थ में दंतखाद्य ( मोदक आदि), गोधूम, तेल, गुड़, घृत आदि खाद्यपदार्थों के भाण्डों से शकट भरे हुए हैं, वह द्रव्यतः शुद्ध सार्थ है क्योंकि यात्रा में वर्षा, बाढ़ आदि किसी प्रकार का व्याघात होने पर सार्थवाह स्वयं उन खाद्यों को खा सकता है, मुनि को भी दे सकता है। उनके अभाव में वह क्या देगा ?
• क्षेत्रतः प्रत्युपेक्षा - जितने मार्ग तक बाल, वृद्ध आदि बिना जा सकते हैं, उतने मार्ग तक यदि सार्थ जाता है तो वह क्षेत्रतः शुद्ध सार्थ है
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• कालतः प्रत्युपेक्षा ---जो सार्थ सूर्योदय वेला में प्रस्थान करता है और पूर्वाह्न में ठहर जाता है, वह कालतः शुद्ध सार्थ है। ० भावतः प्रत्युपेक्षा - जिसके पास श्रमणों आदि को भिक्षा देने के लिए पर्याप्त सामग्री है, वह भावतः शुद्ध सार्थ है ।
४. सार्थवाह और सार्थरक्षक के प्रकार ....... सत्थाहा अट्ठ आइयत्तीया ।....... पुराण सावग सम्मद्दिट्ठि अहाभद्द दाणसड्डे य । अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अण्णतित्थी य ॥ (बृभा ३०७०, ३०८० )
सार्थवाह (सार्थाधिपति) के आठ प्रकार हैं
१. पुराण (पश्चात्कृत ) – जो पहले साधु रह चुका है। २. श्रावक - अणुव्रती श्रावक ।
३. सम्यग्दृष्टि अविरत सम्यग्दर्शनी ।
साधु-दर्शन का पक्षधर ।
४. यथाभद्रक ५. दानश्राद्ध
स्वभावत: दान देने की रुचि वाला ।
६. अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि-तटस्थ भाव से गलत तत्त्व को पकड़कर रखने वाला।
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७. अभिगृहीत- आग्रहशील मिथ्यादृष्टि ।
८. अन्यतीर्थिक- दूसरे सम्प्रदाय का उपासक । आतियात्रिक-सार्थरक्षक के भी ये ही आठ प्रकार
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५. सार्थ का प्रस्थान और शकुन ...पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं ॥ ....अणुकूले निग्गमओ, पत्ता सत्थस्स सउणेणं ॥ (बृभा २८७९, २८९४)
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आगम विषय कोश- २
पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ मुनि अनुकूल चन्द्रबलताराबल होने पर प्रस्थान करे। उपाश्रय से प्रस्थान स्वयं के शकुन से करे तथा सार्थ प्राप्त होने पर सार्थ के शकुन से चले।
सिद्धान्त - राद्धांत, दर्शन, मत ।
जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो।..... (बृभा १७९ ) जो सिद्ध/निर्णीत अर्थ को प्रमाण की कोटि में पहुंचाता है, वह सिद्धांत है ।
.......सो सव्व-पडीतंतो, अहिगरणे अब्भुवगमे य ॥ संति पमाणातिँ पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। थेज्जवई य वसुमई, आपो य दवा चलो वाऊ ॥ जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो उ पडितं तो । निच्चमणिच्चं सव्वं, निच्चानिच्चं च इच्चाई ॥ सो अहिगरणो जहियं सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे । जह निच्चत्ते सिद्धे, अन्नत्ता-मुत्तसंसिद्धी ॥ जं अब्भुविच्च कीरइ, सिच्छाऍ कहा स अब्भुवगमो उ । सीतो वन्ही गयजूह तणग्गे मग्गु - खरसिंगा ॥ (बृभा १७९-१८३)
सिद्धान्त चार प्रकार का है
१. सर्वतंत्रसिद्धान्त - प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण सब तंत्रों (सिद्धांतों) में अर्थ के साधक होते हैं। पृथ्वी स्थिर है, जल तरल है, वायु चंचल है - यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है।
२. प्रतितंत्र सिद्धान्त - जो अर्थ स्व-तंत्र में मान्य है, पर-तंत्र में मान्य नहीं है, जैसे- सांख्य मत में सब नित्य हैं। बौद्ध मत में सब अनित्य हैं । जैन मत में सब पदार्थ नित्य- अनित्य दोनों हैं ।
३. अधिकरण सिद्धान्त - वस्तु के एक धर्म के सिद्ध होने पर उसके शेष अनुक्त धर्म सिद्ध हो जाते हैं। जैसे - आत्मा का नित्यत्व धर्म सिद्ध हो जाने पर उसके अन्यत्व धर्म तथा अमूर्त्तत्व धर्म की भी स्वतः संसिद्धि हो जाती है ।
४. अभ्युपगम सिद्धान्त - अग्नि शीतल है, तृण के अग्रभाग पर गजयूथ है, जलकाक और गधे के सींग होते हैं- ऐसे स्वेच्छिक तथ्यों को स्वीकार कर वादकथा करना ।
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