Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 666
________________ आगम विषय कोश - २ उसे प्रव्रज्या दी जाती है। नगरस्थानीय है संयम और उंडिकास्थानीय है रजोहरण आदि लिंग । कचवर के समान मिथ्यात्व अज्ञान का शोधन-खनन और सम्यक्त्व मुद्गर से कुट्टन किया जाता है। ईंटों स्थापन के सदृश है व्रत। पीठिका के समान है आवश्यक यावत् सूत्रकृतांग सूत्र । प्रस्तुत प्रकरण में प्रासाद के समान है कल्प और व्यवहार सूत्र | रत्नों के सदृश हैं सूत्र के अर्थपद । ५. सूत्र : अर्थ का अनुगामी सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती । अत्थो जहा पस्सति भूतमत्थं, तं सुत्तकारीहिं तहा निबद्धं ॥ छाया जहा छायवतो निबद्धा, संपत्थिए जाति ठिते य ठाति । अत्थो तहा गच्छति पज्जवेसू, सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव ॥ (बृभा ३६२७, ३६२८) यदि तुम्हें सूत्र की प्रमाणता अभीष्ट है तो यह भी जानो कि सूत्र अर्थ का अतिक्रमण कर प्रवृत्त नहीं होता । अर्थ जिस रूप में सद्भूत अर्थ (अभिधेय) को देखता है, सूत्रकारों ने सूत्र को उसी अभिप्राय से निबद्ध किया है। ६१९ जैसे छाया छायावान् पुरुष का अनुगमन करती है-उसके संप्रस्थित होने पर प्रस्थित हो जाती है और उसके ठहरने पर ठहर जाती है, वैसे ही अर्थ जिन पर्यवों/विकल्पों में प्रवृत्त होता है, सूत्र उसी अर्थ का अनुचारी होकर उन्हीं पर्यवों में प्रवृत्त होता है। ६. आचार्य ही अर्थउत्प्रेक्षक ....... अव्वोकडो उ भणितो, आयरिओ उवेहती अत्थं ॥ यथा किलैकस्माद् मृत्पिण्डात् कुलालोऽनेकानि घटशरावादिरूपाणि निष्पादयति, एवमाचार्योऽप्येकस्मात् सूत्रपदादभ्यूह्यानेकेषामर्थविकल्पानामुपदर्शनं करोति । यथा वा सान्धकारे गृहादौ विद्यमाना अपि घटादयः पदार्थाः प्रदीपं विना न विलोक्यन्ते, तथा सूत्रे ऽप्यर्थविशेषा आचार्येणाप्रकाशिताः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते । (बृभा ३३१४ वृ) अग्गयस्स न कप्पड़, तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ । अणुन्नवणाए जयणं, सपक्ख परपक्खजयणं च ॥ निउणो खलु सुत्तत्थो, ण हु सक्को अपडिबोधितो गाउं ।" "सर्वेषामप्यागमानामर्थपरिज्ञानमाचार्यसहायका देवोपजायते, न यथा कथञ्चित् । उक्तञ्च - Jain Education International सूत्र सत्स्वपि फलेषु यद्वन्न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः । तद्वत् सूत्रमपि बुधैरकम्पितं नार्थवद् भवति ॥ (बृभा ३३३२, ३३३३ वृ) सूत्र में सामान्यरूप से अर्थ कहा जाता है। आचार्य विषय विभागपूर्वक सूत्र के अर्थ की उत्प्रेक्षा करते हैं। जैसे कुंभकार एक मृत्पिण्ड से घट, शराव आदि अनेक रूपों को निष्पादित करता है, वैसे ही आचार्य एक सूत्रपद से अनेक अर्थ-विकल्पों को उपदर्शित करते हैं। जैसे अंधकारयुक्त घर आदि में विद्यमान घट आदि पदार्थ दीपक के बिना दृष्टिगत नहीं होते, वैसे ही सूत्र में विद्यमान अर्थविशेष भी आचार्य के द्वारा अप्रज्ञापित होने पर ज्ञात नहीं होते। जो अगीतार्थ है, उसके लिए धान्यशाला आदि में रहना अनुज्ञात नहीं है, क्योंकि वह अनुज्ञापना यतना, स्वपक्षयतना और परपक्षयतना - इस त्रिविध यतना को नहीं जानता । (शिष्य ने पूछा -अगीतार्थ ने भी सूत्र पढ़ा है, फिर वह यतना क्यों नहीं जानता ? आचार्य ने कहा-) सब आगमों का अर्थपरिज्ञान जैसे-तैसे नहीं होता, वह आचार्य के अनुग्रहपूर्ण सहयोग से ही प्राप्त होता है। कहा भी है जैसे फलों से लदा हुआ होने पर भी वृक्ष तब तक फल नहीं देता, जब तक उसे प्रकम्पित नहीं किया जाता, वैसे ही आचार्य के द्वारा अप्रतिबोधित सूत्र भी अर्थवान् नहीं होता । सूत्र का अर्थ सूक्ष्म होता है, अतः आचार्य के प्रतिबोध के बिना उसका सम्यक् परिज्ञान संभव नहीं है। ७. कल्पिक के बारह प्रकार : सूत्रकल्पिक ....... सुत्ते अत्थे तदुभय, उव्वट्ट विचार लेव पिंडे य सिज्जा वत्थे पाए, उग्गहण विहारकप्पे य॥ एवं दुवालसविहं, जिणोवइट्टं जहोवएसेणं । जो जाणिऊण कप्पं, सद्दहणाऽऽयरणयं कुणइ ॥ सो भविय सुलभबोही, परित्तसंसारिओ पयणुकम्मो । अचिरेण उ कालेणं, गच्छइ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥ (बृभा ४०५, ७१३, ७१४) कल्पिक (सूत्रार्थग्रहण - योग्य) के बारह प्रकार हैं१- ३. सूत्र - अर्थ - तदुभयकल्पिक ४. उपस्थापनाकल्पिक विचारकल्पिक ५. For Private & Personal Use Only द्र श्रुतज्ञान द्र दीक्षा द्र समिति www.jainelibrary.org

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