Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 665
________________ सूत्र ६१८ आगम विषय कोश-२ जो अल्प अक्षरों में निबद्ध हो, महान् अर्थ का सूचक हो, ० सूत्र-आवश्यक (सामायिक आदि) से दशवैकालिक, बत्तीस दोषों से रहित तथा आठ गुणों से युक्त हो, वही लक्षणयुक्त दशवैकालिक से उत्तराध्ययन, इसी प्रकार आगे के सूत्र उत्तरोत्तर सूत्र होता है। (द्र श्रीआको १ दृष्टिवाद) बलवान् हैं। दृष्टिवाद के अट्ठासी सूत्र सर्वाधिक बलवान् हैं। पुव्वावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सतंत-अविरुद्ध। ० अर्थ-इसी प्रकार अर्थ की बलवत्ता ज्ञातव्य है। केवल छेदसूत्रार्थ पोराणमद्धमागहभासा णिययं हवति सुत्तं॥ इसका अपवाद है तित्थयरभासितो जस्सऽत्थो गंथो य गणधरणिबढ़ोतं . मिश्र-तदुभय (सूत्रार्थ) में भी यही वक्तव्यता है। पोराणं।अहवा पाययबद्धं पोराणं, मगहद्धविसयभासाणि सूत्र से अर्थ बलवान् होता है। अंग आदि पूर्ववर्ती सब सूत्रों बद्धं अद्धमागहं । अधवा अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं और अर्थों से पूर्वगत सूत्रार्थ बलवान् है। क्यों? दृष्टिवाद के पांच प्रस्थान हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग भवति सुत्तं। (निभा ३६१८ चू) और चूलिका। सिद्धश्रेणिक आदि परिकर्मों और अट्ठासी सूत्रों द्वारा ० सूत्र पूर्वापरसंयुक्त-पूर्व सूत्र अपर सूत्र से अबाधित होता है। सूचित अर्थों का तथा अन्य सभी सूत्र-अर्थों का पूर्वगत में विविध ० सूत्र विषयों के प्रति वैराग्य का भाव पैदा करता है। प्रकार से विवेचन/विश्लेषण है, अतः पूर्वगत बलवान है। ० सूत्र अपने सिद्धान्त के अनुकूल प्रतिपादन करता है। अर्थ अर्हत-प्रज्ञप्त होने से अर्हत-स्थानीय है तथा सत्र ० सत्र पोराण-तीर्थंकरभाषित अर्थ वाला है और गणधर द्वारा गणधरों द्वारा संदब्ध होने से गणधर-स्थानीय है। सत्र अर्थ से निबद्ध है। अथवा वह प्राकृत में निबद्ध है। अथवा वह अर्धमागधी प्रकाशित होता है, इसलिए सूत्र से अर्थ बलवान् है। छेदसूत्र तथा भाषा-अठारह देशी भाषाओं में निबद्ध है। उसके अर्थों से चारित्र के अतिचारों की विशोधि होती है. इसलिए ३. सूत्र और अर्थ में बलवान् कौन ? पूर्वगत के अतिरिक्त शेष सब अर्थों से छेदसूत्रार्थ बलवान् है। अत्थेण गंथतो वा, संबंधो सव्वधा अपडिसिद्धो। ४. सूत्र-अर्थपद : प्रासाद का रूपक सुत्तं अत्थमुवेक्खति, अत्थो वि न सुत्तमतियाति ॥ अभिनवनगरनिवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहन्नू। (व्यभा २८६७) पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोहणया॥ अर्थ और सूत्र का संबंध सर्वथा अप्रतिषिद्ध है। सूत्र अर्थसापेक्ष खणणं कोट्टण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो। होता है। अर्थ भी सूत्र का अतिक्रमण नहीं करता। इय संजम नगरुंडिय, लिंगं मिच्छत्तसोहणयं॥ .......... सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ वय इट्टगठवणनिभा, पेढं पुण होइ जाव सूयगडं। सुत्ते जहुत्तरं खलु, बलिया जा होति दिट्ठिवाओ त्ति। पासाओ जहिं पगयं, रयणनिभा हुँति अत्थपया॥ अत्थे वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं॥ (बृभा ३३१-३३३) एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ। अभिनव नगर में निवास के लिए पहले भूमि की परीक्षा पुव्वगतं खलु बलियं, हेट्ठिल्लत्था किमु सुयातो॥ की जाती है। परीक्षित भूमि को सम किया जाता है। तदनन्तर जो परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं। भूमि जिसके योग्य हो, उसे देने के लिए अक्षरविधिज्ञ अक्षरांकित होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु॥ मुद्राएं डालता है। तत्पश्चात् अपनी-अपनी भूमि का शोधन और तित्थगरत्थाणं खलु, अत्थो सुत्तं तु गणहरत्थाणं। खनन किया जाता है। उसमें ईंटों के टुकड़े डालकर मुद्गर से अत्थेण य वंजिज्जति, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं॥ उनका कुट्टन किया जाता है। उस पर ईंटें स्थापित कर पीठिका जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। तैयार की जाती है। पीठिका के ऊपर प्रासाद का निर्माण कर उसे तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं॥ रत्नों से भरा जाता है। फिर उसमें सुखपूर्वक वास किया जाता है। (व्यभा १८२४-१८२९) भूमिग्रहण के समान है पुरुष। शुद्ध पुरुष की परीक्षा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732