Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 667
________________ ६२० आगम विषय कोश-२ पात्रलेपकल्पिक द्र उपधि इस प्रकार सागारिक, आमगंध आदि सामयिकी संज्ञाओं पिण्डकल्पिक द्र पिण्डैषणा का प्रयोग करने से दो लाभ होते हैं८. शय्याकल्पिक द्र शय्या ० जुगुप्सित अर्थ में प्रयुक्त संज्ञावचन उपचार वचन कहलाता है। ९, १०.वस्त्रकल्पिक, पात्रकल्पिक द्र उपधि उपचार वचन के प्रयोग से जुगुप्सित अर्थ के प्रति निष्ठुरता का ११. अवग्रहकल्पिक द्र अवग्रह भाव पैदा नहीं होता। १२. विहारकल्पिक द्र विहार प्रयोजन होने पर साध्वियां साधु के पास पढे तो संज्ञासूत्र से उन्हें यह बारह प्रकार का कल्प अर्हत् द्वारा प्रतिपादित है। जो सुखपूर्वक आलापक दिया जा सकता है। स्पष्ट शब्द प्रयोग से यथोपदिष्ट कल्प को जानकर उस पर श्रद्धा करता है, उसका साध्वी में निर्लज्जता का भाव पैदा हो सकता है। आचरण करता है, वह भव्य, सुलभबोधिक, परिमित संसार वाला २. कारकसूत्र-आगमसम्मत सिद्धांत की अपायदर्शनपूर्वक सिद्धि तथा प्रतनुकर्मा होता है और वह क्लेशों को नष्ट कर शीघ्र ही करने वाले सूत्र। सर्वज्ञभाषित होने के कारण यद्यपि सारा श्रुत सिद्धि को प्राप्त करता है। एकांततः प्रमाण है किन्तु विस्तार से अपायदर्शन (दोषों के ज्ञान ८. सूत्र के तीन प्रकार अथवा निश्चयात्मक बोध) के लिए कारक-सूत्रों की रचना हुई। सन्ना य कारगे पकरणे य सत्तं तु तं भवे तिविहं।. (जैसे-से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-आहाकम्मं णं भुंजमाणे उवयार अनिट्ठरया, कज्जित्थीदाणमाहु नित्थक्का। आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधण्बद्धाओ धणियजे छऍ आमगंधादि, आरं सन्ना सुयं तेणं॥ बंधणबद्धाओ पकरेइ.....? (भ १/४३७) भंते! यह किस अपेक्षा सव्वन्नुपमाणाओ, जड़ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी। से कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निग्रंथ वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा॥ आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिलबंधनबद्ध पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेव-निन्नयपसिद्धी। प्रकृतियों को गाढ बंधनबद्ध करता है ?) नमि-गोयमकेसिज्जा, अहग-नालंदइज्जा य॥ ३. प्रकरण सूत्र-जिनमें आक्षेप-प्रत्यवस्थान (प्रश्नोत्तर) अथवा "सागारिकं' मैथुन"आमम्-अविशोधिकोटिः संवादशैली का प्रयोग हो। जैसेगन्धं-विशोधिकोटि:....."आमगन्धं परिज्ञाय...."निरामगन्धः ....नि . ० नमिप्रव्रज्या (उ ९)। ० आर्द्रकीय (सू २/६)। सन्"अप्रतिबद्धो विहरेदित्यर्थः। आरः-संसारः"""पारं ० केशिगौतमीय (उ २३)। ० नालंदीय (सू. २/७)। (बृभा ३१५-३१८ वृ) ९. सूत्र के चार प्रकार सत्र के तीन प्रकार हैं-संज्ञासूत्र, कारक सूत्र, प्रकरण सूत्र। कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई। १. संज्ञासूत्र-जिनमें सामयिक-आगम के सांकेतिक शब्दों का उक्कम-कमजुत्ताइं, कारणवसतो णिजुत्ताई।। प्रयोग है। जैसे देसग्गहणे बीएहि सूयिया मूलमादिणो हुंति। ० जे छेए से सागारियं ण सेवए। (आ ५/१०) जो इन्द्रियजयी है, कोहादि अणिग्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं॥ वह सागारिक-मैथुन का सेवन नहीं करता। सत्थपरिण्णादुक्कमे, गोयर पिंडेसणा कमेणं तु। ० सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए। (आ २/१०८) जं पि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादऽट्ठा॥ मुनि सब प्रकार के आमगंध-आहारसंबंधी अविशोधि- .."मोत्तूणं अहिगारं, अणुयोगधरा पभासंति॥ कोटि-विशोधिकोटि के दोषों का परित्याग कर निरामगंध-आहार (बृभा ३३२१-३३२३, ३३२५) की आसक्ति से मुक्त रहता हुआ परिव्रजन करे। सूत्रों में अभिधेय पदों का कहीं देशग्रहण और कहीं ० आरं दगणेणं पारं एगगणेणं । द्विगण-राग-द्वेष से आर-संसार सर्वग्रहण किया गया है तथा प्रयोजनवश कई सूत्र उत्क्रमयुक्त बढ़ता है। एकगुण-वीतरागता से पार-निर्वाण प्राप्त होता है। और कई सूत्र क्रमयुक्त विरचित हैं । चार प्रकार के सूत्र हैं मोक्षः....। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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