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आगम विषय कोश-२
६११
साम्भोजिक
इम दिष्ट-लिंग सरीषा भणी रे, न देणो असणादिक आहार। विहरंति। एगो रंको तं साहुं दटुं ओभासति। साहूहिं बले आदर सनमान देणो नहीं एतो अकल्पनीक अवधार॥ भणियं-अम्हं आयरिया जाणगा, ण च सक्केमो दाउं। सो गोतमादिक केसी भणी रे दीयो आदर सनमान। रंको साधुपिट्ठतो गंतुं अज्जसुहत्यि ओभासति भत्तं। पवालादिक ब्यावच करी एतो कल्पनीक पहिछान॥ ..."अज्जसुहत्थी उवउत्तो पासति-पवयणाधारो विप्रीत दिष्ट-लिंग ना धणी रे, तिण नै न देणो आदर निसदीह। भविस्सति । भणितो-जति णिक्खमाहि। अब्भुवगतं। अकल्पनीक इण कारणे रे एम कह्यो धर्मसीह ॥ णिक्खंतो सामातियं कारवेत्ता जावतियं समुदाणं दिण्णं,
-आचारांग की जोड़, ढाल ६६/४-८) तद्दिणरातीए चेव अजीरतो कालगओ।सो अवत्तसामातिओ ० संभोजप्रत्ययिक क्रिया
अंधकुमारपुत्तो जातो। जे भिक्खू 'णत्थि संभोगवत्तिया किरिय'त्ति वदति,
चंदगुत्तस्स पुत्तो बिंदुसारो। तस्स पुत्तो असोगो। तस्स वदंतं वा सातिज्जति॥..."आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं
__पुत्तो कुणालो। तस्स बालत्तणे चेव उज्जेणी कुमारभुत्ती उग्धातियं॥
(नि ५/६४, ७८)
दिण्णाकुणालकुमारस्स घरे सो रंको उप्पण्णो। णिवत्ते
बारसाहे 'संपती' से णामं कतं। _ 'भिक्षु के संभोजप्रत्ययिक क्रिया (कर्मबंध) नहीं है' जो
____ "संपतिरण्णा ओलोयणगतेण 'अज्जसुहत्थी' दिट्ठो। भिक्षु ऐसा कहता है अथवा कहने वाले दूसरे का अनुमोदन करता
जातीसरणं जातं।"धम्म पडिवण्णो। अतीव परोप्परं हो है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
जाओ। तत्थ य महागिरी सिरिघराययणे आवासितो। (श्रमणसंघ में सामान्य परम्परा मण्डली भोजन की रही
अज्जसुहत्थी सिवघरे आवासितो। ततो राया."अप्पणो है। किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है स्वावलम्बन। स्वलाभ में विसए जणं पिंडेतृणं भणाति-तुब्भे साधूणं आहारातिपासंतोष-यह दूसरी सुखशय्या है। -स्था ४/४५१
योग्गं देह। अहं भे मोल्लं देहामि। ___'संभोज-प्रत्याख्यान करने वाला मुनि परावलम्बन को
अज्जसुहत्थी सीसाणुरागेण साहू गेण्हमाणे सातिजति, छोड़ता है। वह भिक्षा में स्वयं को जो कुछ मिलता है, उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा की
णो पडिसेहेति। तं अज्जमहागिरी जाणित्ता अज्जसुहत्थिं अभिलाषा नहीं करता हुआ वह दूसरी सुखशय्या को प्राप्त कर
भणति-अज्जो ! कीस रायपिंडं पडिसेवह? तओ अज्जविहार करता है।'-उ २९/३४)
सुहत्थिणा भणियं-जहा राया तहा पया, ण एस रायपिंडो।" ७. विसंभोजविधि-प्रवर्तन : महागिरि-सुहस्ती
ततो अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थिं भणति-अज्जप्पभितिं तुम संपति-रण्णुप्पत्ती सिरिघर उज्जाणि हेट्ठ बोधव्वा।
मम असंभोतिओततो अज्जसुहत्थी पच्चाउट्टो मिच्छाअजमहागिरि हत्थिप्पभिती जाणह विसंभोगो॥
दुक्कडं करेति, ण पुणो गेण्हामो। एवं भणिए संभुत्तो।"
__ ततो अज्जमहागिरी उवउत्तो, पाएण "मायाबहुला ___ वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो।तस्स जंबुणामा।तस्स वि पभवो। तस्स सेज्जंभवो। तस्स वि सीसो जसभद्दो।
मणुय"त्ति काउं विसंभोगं ठवेति। (निभा २१५४ चू) जसभइसीसो संभूतो। संभूयस्स थूलभद्दो। थूलभदं जाव भगवान वर्धमानस्वामी के शिष्य सुधर्मा । सुधर्मा के शिष्य सव्वेसिं एक्कसंभोगो आसी। थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दो जम्बू। उनके शिष्य प्रभव। इस प्रकार उत्तरोत्तर शय्यंभव, यशोभद्र, सीसा-अज्जमहागिरी अज्जसहत्थी य। अज्जमहागिरी सम्भूत और स्थूलभद्र तक सबका एक ही संभोज था। स्थूलभद्र के जेट्ठो..
दो युगप्रधान शिष्य-ज्येष्ठ आर्य महागिरि, कनिष्ठ आर्य सुहस्ती। थूलभद्दसामिणा अज्जसुहत्थिस्स नियओ गणो दिण्णो। स्थूलभद्रस्वामी ने आर्य सुहस्ती को अपना गण सौंपा किन्तु प्रीतिवश तहा वि अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थी य पीतिवसेण एक्कओ महागिरि और सुहस्ती दोनों एक साथ विहरण करते थे।
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