Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 657
________________ साम्भोजिक ६१० आगम विषय कोश-२ अदेसितो। अदेसिओ विसण्णो, देसियं भणाति-अहं तुहप्पभावेण तुमे समाणं गच्छे। देसितो तस्सोवसंपण्णस्स मग्गाणुरूवं उवएसं पयच्छति, एस मग्गोवसंपदा। ""दुवे आयरिया, एगो तत्थ वत्थव्यो, सो आगंतुगस्स सुगम-दुग्गमे मग्गे सुहविहारे य खेत्ते सव्वं कहेति, सचित्ताइयं उप्पण्णं सव्वं तेण वत्थव्वस्स णिवेदियव्वं, एस विणओवसंपदा। (निभा २१३९-२१४१ चू) ० उपपात संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु अपेक्षा होने पर पांच प्रकार की उपसम्पदा ग्रहण करते हैं१. श्रुतोपसम्पदा-सूत्र और अर्थ के निमित्त उपसम्पदा। २. सुखदुःखोपसम्पदा-धातुवैषम्य आदि तथा आगंतुक सर्पदंश आदि अनेक विघ्नों से परिपूर्ण मनुष्य जन्म को जानकर कोई असहाय मुनि गच्छ की शरण स्वीकार करता है। वह सोचता हैकिसी रोगातंक से व्यथित होने पर गच्छ मेरी सेवा करेगा, मैं भी गच्छ की सेवा करूंगा। ३. क्षेत्रोपसम्पदा-एक आचार्य के साताकारी क्षेत्र को जानकर दूसरे आचार्य अधिकृत आचार्य की अनुज्ञा लेकर उस क्षेत्र में रहते हैं-यह क्षेत्रउपसम्पदा है। ४. मार्गोपसम्पदा-देशांतरगमन के इच्छक दो आचार्यों में एक मार्गज्ञ है, एक अमार्गज्ञ है। विषण्ण अमार्गज्ञ आचार्य मार्गज्ञ से कहता है-तुम्हारे प्रभाव-अनुभाव से मैं तुम्हारे साथ ही चलता हूं, तब मार्गज्ञ उसे मार्ग के अनुरूप उपदेश देता है। ५. विनयोपसम्पदा-दो आचार्य हैं-एक वास्तव्य और एक आगंतुक। वास्तव्य आगंतुक को सुगम-दुर्गम मार्ग, सुखविहार क्षेत्र आदि के बारे में सब कुछ बता देता है। आगंतुक आचार्य को जो शिष्य आदि की उपलब्धि होती है, वह सारी वास्तव्य आचार्य को निवेदित करता है-यह विनय उपसम्पदा है। ० संवास संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार सांभोजिक साधु एक साथ रहते हैं। इसके दो भेद हैं१. स्वपक्ष-समान कल्प वालों में संवास। २. परपक्ष-गृहस्थों में संवास। ६. साम्भोजिक-समनुज्ञ-साधर्मिक से भिक्खूबहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसिं अणालोइया अणामंतिया परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेज्जा" (आचूला १/१२७) .."समणुण्णो उज्जयविहारी। (नि २/४४ की चू) भिक्षु बहुपर्यापन्न-अतिरिक्त भोजनजात ग्रहण कर ले (और उतना खाया न जाए), वहां अपरिहारिक सांभोजिक, समुनज्ञ-उद्यत-विहारी साधर्मिक पास में रह रहे हों, उन्हें बिना पूछे, बिना आमंत्रित किए उस आहार को परिष्ठापित करता है, वह मायास्थान का संस्पर्श करता है, वह ऐसा न करे। "जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा, जे तेण सयमेसियाए असणं वा पाणं वातेण ते साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवणिमंतेज्जा, णो चेव णं पर-पडियाए उगिज्झिय-उगिज्झिय उवणिमंतेज्जा"जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा, जे तेण सयमेसियाए पीढे वा, फलए वा, सेज्जासंथारए वा, तेण ते "उवणिमंतेज्जा ॥ (आचूला ७/५, ७) . उपाश्रय में यदि सांभोजिक और समनुज्ञ साधर्मिक (अतिथि रूप में) आएं, तो अपने लिए अपने द्वारा एषणापूर्वक लाए हुए अशन, पान आदि देने के लिए उन्हें उपनिमंत्रित करे. दसरे के निमित्त या दूसरे के द्वारा लाया हुआ ले-लेकर उपनिमंत्रित न करे। यदि अन्यसांभोजिक समनुज्ञ सार्मिक आए, तो स्वयं के लिए स्वयं एषणा कर लाये हुए पीठ, फलक और शय्यासंस्तारक देने के लिए उन्हें उपनिमंत्रित करे। (भिक्षु समनुज्ञ और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे. न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो; यह सब अत्यंत आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। समनुज्ञ का अर्थ है-वह मुनि, जो दार्शनिक दृष्टि और वेश से साधर्मिक-समान है, सहभोजन से साधर्मिक नहीं है। असमनुज्ञ का अर्थ है-अन्यतीर्थिक।-आ ८/१ भाष्य लिंग करी सरीषो हुवै पिण सरधा करि जूवो जाण। एहवा भेषधारी जमाली जिसा. ते तो लिंग समनोज पिछाण॥ दिष्टकरी सरीषो हुवै पिण लिंग सरीषो न होय। ते अमड संन्यासी सारसा ते दिष्ट समनोज्ञ जोय॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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