Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 655
________________ साम्भोजिक ६०८ आगम विषय कोश-२ वंदणादि करेंति तो चउगुरुगा। सपक्खे पुण बहिणिग्गता वंदणाति करेंति....। (निभा २१०६ चू) पाक्षिक क्षमायाचना आदि के लिए साधओं के उपाश्रय में समागत साध्वियां वंदना आदि सब पदों का प्रयोग करती हैं-यह विहित है। जब वे भिक्षा आदि के लिए बाहर जाती हैं, तब मार्ग निशा अनिल बाबाजानी में साधुओं को वंदना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की भागी होती हैं। मार्ग में स्वपक्ष में वंदना विहित है-साधु साधुओं को और साध्वी साध्वियों को वंदना करती है। ० अभ्युत्थान-कृतिकर्मकरण-संभोज अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरण अविभत्ती। संजोग-विधि-विभत्ता, अब्भुटाणे वि छट्ठाणा॥ भुंजण-वज्जा अण्णे, अविभत्ती........। संजति थेर-विभत्ती, माता.........॥ सुत्तायामसिरोणत, मुद्धाणं सुत्तवज्जियं चेव। संजोग-विधि-विभत्ता, छद्राणा होंति कितिकम्मे॥ ....."मुहरोगी आयामे, मुद्ध समत्ते ऽधव गिलाणे॥ (निभा २१११, २११३, २११४, २११६) ० अभ्युत्थान संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार अभ्युत्थान का सम्मान दिया जाता है। इसके छह स्थान हैं१. अभ्युत्थान-ज्येष्ठ साधु के आने पर खड़े होना। २. आसन-आसन ग्रहण करो-यह कहते हुए आसन देना। ३. किंकर-प्राघूर्णक, आचार्य आदि को कहना-आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूं? ४. अभ्यासकरण-सदा आचार्य आदि के समीप रहना। ५. अविभक्ति-अन्यसांभोजिकों के साथ एकत्रमण्डली में भोजन नहीं किया जाता, उनकी अविभक्ति की जा सकती है। संविग्न स्थविरा साध्वी की इस रूप में अविभक्ति की जा सकती है-तम मेरी माता जैसी हो। ६. संयोग-उल्लिखित भंगों के संयोग से निष्पन्न भंग। ० कृतिकर्मकरणसंभोज-इसके छह स्थान हैं१. सूत्र-वंदना सूत्र का अस्खलित उच्चारण करना। २. आयाम-खड़े होना, सूत्रोच्चारण-युक्त आवर्त देना। ३. शिरोनत-सूत्रोच्चारणपूर्वक शिरोनमन करना। ४. मूर्धा-वन्दनासूत्र की समाप्ति पर केवल सिर झुकाना। केवल शिरोनमन आचार्य और ग्लान के लिए विहित है। ५. सूत्रवजित-यदि मुखरोग हो तो, मानसिक सूत्रोच्चारण करना तथा आवर्त आदि शेष सारी क्रियाएं करना। ६. संयोग-उल्लिखित स्थानों के संयोग से निष्पन्न भंग। ० वैयावृत्त्यकरण-समवसरण-संभोज आहार उवहि मत्तग, अधिकरण-विओसणा य सुसहाए।" वास उडु अहालंदे, साहारोग्गह पुहत्त इत्तरिए। वुड्डवास समोसरणे छदाणा होति पविभत्ता॥ पडिबद्धलंदि उग्गह, जं णिस्साए तु तस्स तो होति। रुक्खादी पुव्वठिते, इत्तरि वुड्ढे स हाणदी॥ साधारण-पत्तेगो, चरिमं उज्झित्त उग्गहो होति।... समणुण्णमणुण्णे वा, अदितऽणाभव्वगेण्हमाणे वा। संभोग वीसु करणं, इतरे य अलंभे य पेल्लति॥ (निभा २११८, २१२०-२१२४) वैयावत्यकरण संभोज-इस व्यवस्था के अनुसार आहार, उपधि, मात्रक, कलह-शमन और सहयोग के द्वारा सांभोजिक का उपष्टम्भ किया जाता है। ० समवसरण संभोज-इसके अनुसार समानकल्पी साधुओं के एक साथ मिलने पर अवग्रह (अधिकृतस्थान) की व्यवस्था होती है। इसके छह प्रकार हैं१. वर्षा-अवग्रह ४. इत्वरिक-अवग्रह २. ऋतुबद्ध-अवग्रह ५. वृद्धवास-अवग्रह ३. यथालन्द-अवग्रह ६. समवसरण-अवग्रह । गच्छ-प्रतिबद्ध यथालन्दिक जिसकी निश्रा में विहरण करते हैं, उसका अवग्रह होता है। आज्ञा लेकर वृक्ष आदि के नीचे बैठना इत्वरिक अवग्रह है। जो पहले आज्ञा लेकर जहां बैठता है. वह अवग्रह उसका होता है। जिनका जंघाबल क्षीण है, उनका वृद्धावास अवग्रह होता है। पर्व के दिनों में साधु इकट्ठे होते हैं, वह समवसरण है। इनमें प्रथम पांच अवग्रहों के दो-दो प्रकार हैं-साधारण और प्रत्येक। समवसरण अवग्रह साधारण होता है, प्रत्येक नहीं। सांभोजिक साधुओं के अवग्रह में कोई साधु जाकर शिष्य, वस्त्र आदि का जान-बूझकर ग्रहण करता है तथा अनजान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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